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कवि जब कविता लिखता है तो वह अपने एकांत में अपने साथ अकेला होता है
हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -२
मो. : 9418111108
विमर्श के बिंदु
1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
4. हिमाचली कविता में स्त्री
5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी
रेखा वशिष्ठ, मो.-9418047373
कवि जब कविता लिखता है तो वह अपने एकांत में अपने साथ अकेला होता है। लिखने की प्रक्रिया व्यक्तिगत होते हुए भी लेखन एक सामाजिक कर्म है। लेखक के मन में उपजे हुए शब्द की जीवन यात्रा तब तक संपूर्ण नहीं होती जब तक वह दूसरे के मन में स्थान नहीं पा लेता। अनुभूति अभिव्यक्ति का माध्यम ढूंढती रहती है। जिस तरह आत्मा शरीर में रूप-आकार पाकर व्यक्त होती है, उसी तरह अनुभूति शब्दों में रूप-आकार पाकर व्यक्त होती है। कविता अभिव्यक्ति का एक विशेष माध्यम है। तुलसीदास जी ने जिस महाकाव्य को लिखने की आवश्यकता 'स्वांत सुखाय अनुभव की थी, उसका लक्ष्य भी जन-जन के मानस को छूकर 'सर्वजन हिताय हो जाने पर ही पूरा हुआ। कविता में संप्रेषण का संकट हर युग में रहा होगा। कारण भिन्न रहे हों। उस युग में भी यह संकट था, जब शब्द को लिखना और फिर लिखे हुए को संभाल कर रखना कठिन था। आज जबकि संचार माध्यम चरम विकास कर चुके हैं, यह संकट और भी गहरा हो गया है। कविता में संप्रेषण के संकट का मूल कारण अनुभूति और अभिव्यक्ति के बीच का अंतर है।
प्रत्येक कवि के सामने अनुभूत सत्य को मार्मिक और प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करने की समस्या प्रमुख होती है। वह अपने युग बोध के अनुसार उपलब्ध अनुभूतियों को संपूर्णता में अभिव्यक्त करके अपनी कला को सफल मानता है। संप्रेषण में कमी का कारण इन्हीं दो पक्षों- अनुभूति और अभिव्यक्ति में किसी एक का दोषपूर्ण होना होता है। कविता को कई तरह से परिभाषित किया गया है। कुछ लोग कविता को तीव्र या उत्कट भावों और आवेगों का सहज प्रवाह मानते हैं। वे यह भी मानते हैं कि यदि भाव या विचार बहुत सशक्त हैं तो वे स्वत: एक सशक्त माध्यम यानी भाषा ढंूंढ लेंगे। ऐसी कविता निश्चित ही प्रभावोत्पादक भी होगी। परंतु अनुभूति की तीव्रता का आशय उत्कट आवेग मात्र नहीं है। काव्य में अनुभूति के परिमार्जन, संशोधन और परिष्कार का भी बहुत महत्त्व है। सृजन के लिए धैर्य और संयम की बहुत आवश्यकता होती है। कविता जिस भाव भूमि में उपजती है, वह केवल व्यक्ति का चेतन मन और मस्तिष्क ही नहीं, अपितु उसका अचेतन, अर्धचेतन और अवचेतन मन भी है। कवि के लिए दृश्य जगत से परे मन के काले-अंधेरे, अगम्य, अगोचर, गुफा-गहवर कुछ भी वर्जित नहीं है। इसीलिए उसकी काव्यानुभूति का सत्य साधारण मनुष्य के अनुभूत सत्य से इतर भिन्न कोटि का होता है। वह बिंबों से काम लेता है। संप्रेषण का संकट बहुधा बिंबों की क्लिष्टता या अस्पष्टता से भी उत्पन्न होता है। ये बिंब दुधारे औजार हैं। ये भाषा को सशक्त, समर्थ और सार्थक बनाते हैं। परंतु यही बिंब जब स्पष्ट, पारदर्शी और सार्थक नहीं होते, तब वे कविता को भारी-भरकम, बोझिल, अस्पष्ट और क्लिष्ट बना देते हैं। आज जब ज्ञान-विज्ञान की अनेकानेक शाखाएं, प्रशाखाएं व्यक्ति की चेतना और विश्व-दृष्टि का हिस्सा बन चुकी हैं, जाहिर है ज्ञान और जानकारी या सूचनाओं की एक अपार संपदा व्यक्ति के अवचेतन का भी हिस्सा बन गई हैं। यह वह मनोभूमि है, जहां से बिंब उपजते हैं। यदि कवि अपने पाठकों की योग्यता, क्षमता और रुचियों से बेखबर बिंब चुनेगा, तो पाठक उसे अस्वीकार कर देंगे।
संवादहीनता के इस समय में पाठक और कवि के बीच दूरियां उत्तरोत्तर बढ़ रही हैं। संप्रेषण के इस संकट के कुछ कारण शिल्पगत हैं जो अनुभूति और अभिव्यक्ति के बीच तालमेल न होने से उत्पन्न होते हंै। आज का युग विज्ञान और तकनीक का युग है। मशीनों के साथ रहते हुए मनुष्य भी मशीनों की तरह सोचने और काम करने लगा है। जीवन इतनी द्रुत गति से चल रहा है कि उसमें कविता जैसी विधा, जो धैर्य और ठहराव मांगती है, पीछे छूटती जा रही है। कविता के रचाव और बसाव के लिए जिस तापमान की आवश्यकता होती है, वह नहीं मिल पा रहा। संचार माध्यमों की प्रचुरता के कारण लिखने-पढऩे के बहुत से विकल्प उपलब्ध हैं। श्रव्य और दृश्य उपकरणों का इतना बाहुल्य है कि हम हर वस्तु, हर मनोभाव को दृश्य रूप में देखना चाहते हंै। शब्दों का स्थान रूपाकारों ने ले लिया है। दूसरा बड़ा संकट यह है कि विज्ञान और तकनीकी का यह युग बुद्धि प्रधान है, जबकि कविता का संबंध हृदय से अधिक है। कविता को जिन लोगों तक पहुंचना है, उनमें भी वही विशेष मनोभूमि होनी जरूरी है जैसी कवि में है।
यह कविता का दुर्भाग्य है कि आज हम जिस समय में जी रहे हैं, वह समय कई कारणों से कविता के अनुकूल नहीं है। किसी भी तरह की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संकीर्णता कविता के सही संप्रेषण को बाधित करती है। साहित्य या कविता में जो खेमेबंदी दिखाई देती है, वह इसी वैचारिक कट्टरपंथिता का परिणाम है। मैं समझती हूं, कविता के संप्रेषण और व्याप्ति के लिए खुला आकाश और उर्वर जमीन मिलना उतना ही जरूरी है, जितना किसी पौधे के लिए हवा और धूप, धरती और पानी। यह तब ही हो सकता है जब हम सभी पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से मुक्त होकर लिखें और पढ़ें। अन्यथा कविता में संप्रेषण का संकट कभी कम नहीं होगा।
Rani Sahu
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