- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- विमर्श से बाहर होता आम...
क्षमा शर्मा : हवा में चुनावों की चर्चा है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर। इसके बाद कुछ और राज्यों के चुनाव। जैसे ही चुनाव आते हैं, विभिन्न जातियों, धर्मों और उनसे जुड़े दल अपने-अपने घोषणापत्र लेकर हाजिर हो जाते हैं। नए समीकरण बनने लगते हैं। आज तक जो विरोधी था, वह दोस्त हो जाता है और दोस्त पानी पी-पीकर कोसने लगता है। यही हाल दूसरे समूहों का होता है। कोई महिलाओं के नाम पर, कोई ट्रांसजेंडर तो कोई पर्यावरण के नाम पर अपनी-अपनी मांगें उठाने लगता है। पिछले कुछ दशकों में जैसे-जैसे महिलाओं की शिक्षा बढ़ी है और वे वोट का गुणा-भाग करने लगी हैं, वैसे-वैसे हर दल उनका हितैषी दिखने की कोशिश करने लगे हैं। अपने-अपने दलों के घोषणा पत्रों में उन्हें विशेष जगह दी जाने लगी है। आधी आबादी की निर्णयकारी क्षमता से दल घबराने लगे हैं। वे उन्हें अपनी तरफ खींचने का प्रयास करते दिखते हैं, लेकिन जब एक वर्ग, समूह को आप अपनी तरफ खींचते हैं तो अक्सर दूसरे समूह पीछे रह जाते हैं और वे अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं, क्योंकि विमर्श से, बहसों से उन्हें बाहर कर दिया जाता है। समझा यह जाता है कि ये समूह कहां जाएंगे। हमें ही वोट देंगे, लेकिन यह सच नहीं है।