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- सर्वोच्च न्यायालय की...
आदित्य चोपड़ा; भारत की न्याय प्रणाली विश्व की श्रेष्ठतम न्यायिक व्यवस्थाओं में गिनी जाती है जिस पर देश के लोकतान्त्रिक संवैधानिक तन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति को यथोचित न्याय देने की जिम्मेदारी भी है। हमारे संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका का जो ढांचा खड़ा किया उसे सरकार से अलग रखते हुए स्वतन्त्र दर्जा दिया जिससे भारत की राजनीतिक प्रशासन प्रणाली में यह पूरी निष्पक्षता के साथ अपनी बेबाक भूमिका अदा कर सके। इस व्यवस्था में सर्वोच्च या उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को वह रुतबा बख्शा गया कि वह संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को उनके पद की शपथ दिलायें और बदले में राष्ट्रपति ही किसी भी नये प्रधान न्यायाधीश को पद की शपथ दिलाएं। मगर इससे भी ऊपर सर्वोच्च न्यायालय को पूरे देश में संविधान का शासन देखने की जिम्मेदारी कानूनों की व्याख्या करने के लिहाज से दी गई। अतः जब भी किसी विवादास्पद मामले में सर्वोच्च न्यायालय का जो फैसला आता है उसे ही कानून माना जाता है। बेशक हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली में लोगों द्वारा चुनी गई संसद सर्वोच्च होती है क्योंकि इसे ही कोई भी नया कानून बनाने या पुराने कानून को बदलने का अधिकार होता है। परन्तु संविधान के आधारभूत सैद्धान्तिक मानकों को बदलने का इसे भी अधिकार नहीं है। हाल में ही भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सूर्यकान्त ने जो टिप्पणियां की हैं उन्हें लेकर राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्रों में खासा विवाद हो रहा है और लोगों की अलग-अलग राय है। इस मामले में यह समझने की जरूरत है कि ये टिप्पणियां न्यायमूर्ति सूर्यकान्त के फैसले का हिस्सा नहीं हैं और न ही इनकी कोई वैधानिक प्रभाव है परन्तु निश्चित रूप से इनका राजनीतिक व सामाजिक प्रभाव है जिसकी वजह से विवाद खड़ा हुआ है। न्यायमूर्ति सूर्यकान्त ने नूपुर शर्मा की यह याचिका प्राथमिक स्तर पर ही अमान्य कर दी कि उनके विरुद्ध देश के विभिन्न भागों में दर्ज किये गये मुकदमों को एक ही स्थान पर संग्रहित कर दिया जाये और पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब के बारे में की गई उनकी टिप्पणी पर दायर एफआईआर को निरस्त कर दिया जाये। इस याचिका की सुनवाई करते न्यायमूर्ति सूर्यकान्त ने जो अपना आंकलन मौखिक रूप में दिया उसका आशय निश्चित रूप से याचिका में की गई गुहार के विभिन्न पक्षों से था जिससे उनके विचारों को समझने में ही मदद मिल सकती है। न्यायमूर्ति को लगा कि नूपुर शर्मा आदतन बिना सोच-विचार के बोलने वाली है (लूज टंग) और आज देश में जो हालात बने हैं उसके लिए वह ही जिम्मेदार हैं। इसमें उदयपुर की वह घटना भी शामिल है जिसमें दर्जी का काम करने वाले एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई। अतः उन्हें पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए। उसमें अभिमान भाव इस कदर है कि वह देश के किसी मैजिस्ट्रेट के समक्ष गुहार लगाने में अपनी तौहीन समझती हैं जिसकी वजह से वह सीधे ही सर्वोच्च न्यायालय आ गई हैं। न्यायमूर्ति सूर्यकान्त के साथ दूसरे न्यायमूर्ति जे.बी. पर्दीवाला को भी लगा कि नूपुर शर्मा के मामले में दिल्ली पुलिस ने भी अपने दायित्व का निर्वाह न्यायसंगत तरीके से नहीं किया है और उन्होंने टिप्पणी की कि जब किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज करते हैं तो उसे तुरन्त गिरफ्तार कर लेते हैं मगर नूपुर शर्मा को किसी ने भी छूने की कोशिश नहीं की। नूपुर शर्मा ने अपनी याचिका में दलील थी कि उन्हें अपनी सुरक्षा या जान का खतरा है अतः सभी मुकदमे एक ही स्थान पर संग्रहित कर दिये जायें जिस पर न्यायमूर्ति सूर्यकान्त ने यह टिप्पणी की कि उनकी सुरक्षा को खतरा है या वह स्वयं ही सुरक्षा के लिए खतरा बन गई हैं। अंत में स्वयं नूपुर शर्मा के वकीलों ने ही याचिका को वापस ले लिया जिसका मतलब यही निकलता है कि याचिका प्रथम दृष्टया रूप में ही निरस्त हो गई। बेशक ये टिप्पणियां एेसी हैं जिन पर राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्रों में विवाद हो सकता है। परन्तु हमें कोई भी विचार व्यक्त करते हुए यह सोचना चाहिए इन्हीं दो न्यायमूर्तियों ने कुछ दिन पहले ही गोधरा कांड से गुजरात में उपजी साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों से श्री नरेन्द्र मोदी को पूर्ण रुपेण क्लीन चिट देते हुए उनके विरुद्ध साजिश के तहत कुत्सित अभियान चलाने का फैसला भी दिया था। न्याय के मामले में जन- धारणाओं का कोई महत्व नहीं हो सकता। इसके एक नहीं बल्कि कई उदाहरण हैं। सबसे पहला उदाहरण तो 1969 का है जब स्व. इदिरा गांधी द्वारा 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था जबकि श्रीमती गांधी के फैसले से पूरे देश में उनके समर्थन की लहर चल पड़ी थी। दूसरा ऐसा ही मामला पूर्व राजा-महाराजाओं के प्रिविपर्स उन्मूलन का है। जहां तक टिप्पणियों को सवाल है तो पिछली मनमोहन सरकार के दौरान सीबीआई के बारे में भी उसे 'पिंजरे में कैद तोते' की संज्ञा भी भ्रष्टाचार के एक मुकदमे के दौरान चल रही सुनवाई के दौरान ही की गई थी। न्यायमूर्तियों की टिप्पणियों का अर्थ केवल अन्तर्आत्मा को टटोलने की गरज से ही होता है। इस तथ्य को प्रबुद्ध जनता को गंभीरता के साथ समझने की जरूरत होती है। बेशक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की समालोचना का अधिकार है परन्तु व्यक्तिगत रूप से किसी न्यायमूर्ति की आलोचना करने का अधिकार हमें नहीं है।