सम्पादकीय

आओ राम, खाओ राम, जाओ राम

Gulabi
2 Nov 2021 5:46 AM GMT
आओ राम, खाओ राम, जाओ राम
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बेचारे राम भारतीय मानस के रोम-रोम में इस तरह रमे हुए हैं कि

बेचारे राम भारतीय मानस के रोम-रोम में इस तरह रमे हुए हैं कि आह से वाह तक शायद ही कोई वाक्य ऐसा हो, जिसमें राम शामिल न हों। मुहावरों और कहावतों में आज़ादी से पहले भले ही ऊधो-माधो या गंगादास-जमनादास का बोलबाला था; लेकिन लोकतंत्र ने राम को एक बार पुनः गौरवान्वित होने का अवसर प्रदान करते हुए 'आया राम, गया राम' का ऐसा मुहावरा गढ़ा कि दलबदलुओं की पौ-बारह हो गई। कबीर के शब्दों, 'जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ' को सही शब्दों में चरितार्थ करने वाले ये दलबदलु घर तो ज़रूर फूँकते हैं, पर किसका? इस विषय पर ऑक्सफोर्ड या हावर्ड जैसे किसी विदेशी विश्वविद्यालय में गंभीर शोध हो सकता है। कहने को तो भारतीय विश्वविद्यालय भी हैं, लेकिन यहाँ भी दलबदलुओं की सरकारें हैं। जमालो की तरह यह दलबदलु भुस में आग लगाकर दूर खड़े हो जाते हैं। दूसरे दल में शामिल होकर, ये दलबदलु न केवल सत्ता के ताप का मज़ा लेते हैं बल्कि अपने दल के भुस में लगी आग में भी बराबर अपने हाथ गर्म करते रहते हैं। सत्ता का ताप खत्म होते ही उन्हें घर की याद आने लगती है। कहने को एक अधम सरकार के देश विरोधी प्रधानमंत्री ने दल-बदल रोधी कानून भी बनाया था।


लेकिन हमारे पुरोधाओं के पास हर मज़र् की दवा है, जो कभी किसी मज़र् को हद से आगे बढ़ने ही नहीं देता। लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले ये पुरोधा हर अच्छाई को पनपने से पहले ही खत्म करने में गहन अंधविश्वास रखते हैं। लोकतंत्र के ये सच्चे सिपाही केवल उन्हीं बुराइयों में विश्वास रखते हैं, जो 'खुल जा सिमसिम' कहते ही सोने-चाँदी के ढेर लगा देती हैं। कुछ अरसा पहले जिन महानुभावों को भारतीय दलबदलु पार्टी महान लगती थी, ठाकुर की धरती में खेला हारते ही उन्हें वहाँ काँटें चुभने लगे और वे घरों कीअदला-बदली में मसरू़फ हो गए। वैसे भी जब तवा एक हो तो रोटियों के छोटा-बड़ा होने से क्या ़फ़र्क पड़ता है? जब दिल करेगा, रोटी बड़ी बना लेंगे या छोटी कर देंगे। ज़ोर सि़र्फ ज़र का चलता है। विचारधारा तो सदा धनधारा से ढकी रहती है। विचार तो तब पनपें, जब सोचना-समझना चले या चिंतन-मनन हो। वैसे भी राजनीति में परजीवी ही पनपते हैं।

यहाँ बुद्धिजीवियों का क्या काम? अपने दल के सत्ता के ताप से दूर होते ही तवा ठंडा होने लगता है। जब तवा गर्म नहीं होगा तो रोटी चाहे छोटी हो या बड़ी, सिंकेगी कैसे? ऐसे में ताप का बंदोबस्त करना ही पड़ता है। ताप मिलते ही धन की गरमी दौड़ी चली आती है। राजनीति के मरूस्थल और चर्चा की ऊसर भूमि में सभी राजनीतिक दल, दल-बदल के खेल में बंदर की तरह एक डाल से दूसरी डाल पर गुलाटियाँ मारने में व्यस्त रहते हैं। लगता है खेलानंद महराज का 'न खाऊँगा, न खाने दूँगा' का नारा राजनीति के चाल, चरित्र और चेहरे की दाढ़ी में तिनके की तरह कहीं खो गया है। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में निहित निःस्वार्थ राजनीतिक दलों ने अब 'आया राम, गया राम' के सिंद्धात को किसी ऐसे अँधेरे ता़क पर रख छोड़ा है, जहाँ किसी की नज़र पहुँच ही नहीं सकती। उनका नया सिद्धांत है, 'आओ राम, खाओ राम, जाओ राम'। नैतिकता और ईमानदारी को अपनी रखैल समझने वाले सभी राजनीतिक दलों के इस नए सिद्धांत के अनुसार दलबदलुओं का सार्वजनिक स्वागत किया जाता है। उन्हें सरकार में ऊँचे मनसब दिए जाते हैं या उस टकसाल का पता बताया जाता है, जहाँ वे अपनी सुविधानुसार सिक्के ढाल सकते हैं। वनवास तो अयोध्यावासी राम की थाती है। लोकतंत्र के ये राम सोने की उस लंका में सोते-जागते हैं, जहाँ चित्त, पट और सिक्के के साथ टकसाल भी खानदानी हो जाती है।

पी. ए. सिद्धार्थ,
लेखक ऋषिकेश से हैं


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