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- आओ राम, खाओ राम, जाओ...
बेचारे राम भारतीय मानस के रोम-रोम में इस तरह रमे हुए हैं कि आह से वाह तक शायद ही कोई वाक्य ऐसा हो, जिसमें राम शामिल न हों। मुहावरों और कहावतों में आज़ादी से पहले भले ही ऊधो-माधो या गंगादास-जमनादास का बोलबाला था; लेकिन लोकतंत्र ने राम को एक बार पुनः गौरवान्वित होने का अवसर प्रदान करते हुए 'आया राम, गया राम' का ऐसा मुहावरा गढ़ा कि दलबदलुओं की पौ-बारह हो गई। कबीर के शब्दों, 'जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ' को सही शब्दों में चरितार्थ करने वाले ये दलबदलु घर तो ज़रूर फूँकते हैं, पर किसका? इस विषय पर ऑक्सफोर्ड या हावर्ड जैसे किसी विदेशी विश्वविद्यालय में गंभीर शोध हो सकता है। कहने को तो भारतीय विश्वविद्यालय भी हैं, लेकिन यहाँ भी दलबदलुओं की सरकारें हैं। जमालो की तरह यह दलबदलु भुस में आग लगाकर दूर खड़े हो जाते हैं। दूसरे दल में शामिल होकर, ये दलबदलु न केवल सत्ता के ताप का मज़ा लेते हैं बल्कि अपने दल के भुस में लगी आग में भी बराबर अपने हाथ गर्म करते रहते हैं। सत्ता का ताप खत्म होते ही उन्हें घर की याद आने लगती है। कहने को एक अधम सरकार के देश विरोधी प्रधानमंत्री ने दल-बदल रोधी कानून भी बनाया था।