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- मिलकर करें कोरोना...
ऋतु सारस्वत: कोरोना की दूसरी लहर ने भारत को किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया है। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है, परंतु कोई भी इस प्रश्न का उत्तर गंभीरता से ढूंढने का प्रयास नहीं कर रहा है कि कुछ समय पूर्व जो स्थिति नियंत्रण में थी, वह यकायक अनियंत्रित कैसे हो गई? इसमें संदेह नहीं कि एक वर्ग महामारी की वर्तमान विकरालता का जिम्मेदार सरकारी व्यवस्थाओं को ठहरा रहा है और यह कोई नई बात नहीं है। दुनिया में जब महामारी का कोई भी रूप मानवीय विध्वंस करता है तो चारों तरफ आरोप-प्रत्यारोप का खेल शुरू हो जाता है। यह प्रवृत्ति सदियों से चली आ रही है। सफलता का श्रेय लेने के लिए सभी तत्पर रहते हैं और असफलताओं की जिम्मेदारी लेने का साहस किसी में नहीं होता। हम भूल जाते हैं कि समाज का एक अभिन्न भाग होने के कारण सफलताओं और विफलताओं में हमारी सामूहिक भूमिका होती है। सरकारें क्या कर सकती हैं और सरकार की क्या खामियां हैं? आज चारों ओर विमर्श का विषय यही है। ऐसा होना भी चाहिए। लोकतंत्रात्मक व्यवस्था की सबसे बड़ी खूबी ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, परंतु कहीं कोई यह स्वीकारने को तैयार नहीं है कि व्यवस्थागत कमियों से इतर कुछ हमारी भी जिम्मेदारियां हैं, जिसे निभाने में हमसे भारी चूक हुई है।