- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- समझौतापरस्तों की
x
जब से जिंदगी से रुखसत लेने का समय करीब आता जा रहा है, हम एक ही बात बार-बार सोचने लगे हैं, कि क्या हमारी इस धडऩतख्ता जिंदगी और नामुकम्मल जिंदगी की नाकामयाबी के पीछे यह सच्चाई तो नहीं कि हम किसी भी क्षण जिंदगी के किसी भी आयाम में एक समझौतापरस्त टुकडख़ोर न बन सकें? जी हां, जीवन में कामयाब होने के यही दो अचूक मंत्र हैं। पहला तो यह कि सबसे अच्छा लड़ाकू वह जो अपने से तगड़े को देख कर समझौता कर उसकी चरणवंदना कर ले, और अपने से कमजोर के सामने एक ऐसे पहाड़ पर खड़े होने का नजारा पेश करे कि जिसके नीचे कोई सीढ़ी भी नहीं। ऐसे पहाड़ पर वह हमेशा अकेला खड़ा रहता है और अपनी कल्पना में एक ऐसी भीड़ को अपना अनुसरण करते देखता है, उन पर अनुग्रह के फूल बरसाता रहता है। आशीर्वाद की भाषा के चंदोने तानता है, लेकिन अगर उसके ढोल की पोल खोल कोई छीछालेदर करने वाला सामने आ जाए तो उसके मुखौटे का रंग बदल जाता है। वह विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन जाता है और झुक-झुक कर उसे ऐसी कोर्निश बजाता है कि वह दूसरा भूतपूर्व पहाड़ भी उससे लज्जित होकर अपने अहम ब्रतास्मि को गलत अर्थ लगने लगता है। शब्द ‘कोर्निश’ का क्या अर्थ होता है, बन्धु। भाषा शून्य, बुद्धि वर्जित हमसे बार-बार पूछ लेते हैं।
अब उनकी जिज्ञासा का समाधान हम कैसे करें? तब एक और शब्द ‘टुक्कडख़ोर’ कूद कर किसी मायूस खरगोश की तरह हमारे बीच आकर खड़ा हो जाता है। अपनी मासूमियत के पंजे रगड़ते हुए बता देता है कि बन्धु शेरों की दहाड़ का नहीं, जमाना खरगोशनुमा पुलकन का है, गिलहरी सी फुदकन का है। भूख और बेकारी चाहे कितनी बढ़ जाए, जर्द होते और मुरझाते फूल मुर्दा होती तितलियों के पंखों की तरह बार-बार चेतायें कि बेमौसमी बरसात के विदा होते बादलों के साथ आजकल इन्द्रधनुष नहीं खिलते। अकाल और बेकारी लौट-लौट कर तेरे दरवाजे पर दस्तक देती है और तू विकास दर के आंकड़ों की छलांग पर लौटती लहरों की बांसुरी बजाता है। इस बेसुरी होती दुनिया में संगीत की लहरों पर युग बदलने के क्रांतिनाद नहीं उभरते, टुक्कडख़ोरों की घिघियाहट पेश-पेश हो जाती है। सुनो अलविदा कह गयी तलाकशुदा भूतपूर्व प्रेमिका की तरह, मौत के हरकारे महामारी का नया मुखौटा पहन कर तेरी जिंदगी में लौट आये हैं।
किसान अपनी फसलों के लिए एक निम्नतम मूल्य की गारंटी की आस लिए फरियाद करते हैं और उधर अपने दया और हमदर्दी के नये पहाड़ से एक और मसीहा से फरमा दिया, जो तेरा दर्द वह मेरा दर्द। देश मेरे कर रहित बजटों की ओर देखो, इसमें उन स्कूलों के खुलने की चिन्ता है जो महामारी के भय से फिर बंद कर दिये गए थे। इन बेकार हाथों को फिर से काम देने की चिन्ता है जिन्होंने अपने इलाकों को बेगाने इलाके से अलग कोष्ठकों में फिर बंद कर देने का प्रयास किया है। न्यायाधीश कहते हैं, अजी इन कोष्ठकों पर फिर से विचार कर लो, अपने इलाके के पचहत्तर प्रतिशत लोगों को इसमें बंद कर दोगे, तो केवल पच्चीस प्रतिशत को खुला छोड़ पूरे देश को डिजीटल कैसे बनाओगे? मंगल ग्रह पर पहुंच कर नये ख्वाबों की बस्ती कैसे बसाओगे? लेकिन बन्धु, मंगल ग्रह तक जाने की आवश्यकता क्या है? वहां अपनी धरती जैसा जीवन है या नहीं, इसकी खोज करने चले हो। अरे पहले अपनी धरती के मरते-जीते लोगों को नयी सांसें तो बख्श दो। तब होगा एक टुक्कडख़ोर संस्कृति का जन्म। इसी संस्कृति से जीने का नया संदेश मिलेगा। धनी की महिमामयी मेज से गिरते हुए फल मिठाई के उच्छिष्ठ शिरोधार्य करने का संदेश। पीठ थपथपाने से बड़ा अनुग्रह कोई और नहीं होता, बन्धु। चारण हो जाने से बड़ी सुरक्षा और कोई नहीं। आओ नये उभरते इन शक्ति स्तम्भों का झांझ कर ताल बजा कर स्वागत करें कि ‘प्रभो तुम ही बचाओगे हमें इन दुर्दिनों से।’
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
Rani Sahu
Next Story