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कोरोना के कारण पिछले डेढ़ साल से बंद पडे़ उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा मंत्रालय द्वारा घोषित वर्ष 2021 की रैंकिंग से चर्चा का माहौल गरम हो गया है
हरिवंश चतुर्वेदी। कोरोना के कारण पिछले डेढ़ साल से बंद पडे़ उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा मंत्रालय द्वारा घोषित वर्ष 2021 की रैंकिंग से चर्चा का माहौल गरम हो गया है। 2016 से शुरू हुई इस रैंकिंग में 11 श्रेणियों, यथा विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, इंजीनियरिंग, प्रबंध, विधि, फार्मेसी, चिकित्सा आदि विषयों के श्रेष्ठतम संस्थानों की सूची जारी की गई है। इस बार सिर्फ 4,000 उच्च शिक्षा संस्थानों ने इस रैंकिंग में भाग लिया, यह देश के कुल संस्थानों के दस प्रतिशत से भी कम है।
वर्ष 2021 की रैंकिंग में श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी, मद्रास व आईआईएससी, बेंगलुरु प्रथम और द्वितीय स्थान पर रहे। तीन अन्य आईआईटी (मुंबई, दिल्ली और कानपुर) प्रथम पांच संस्थानों की सूची में रखे गए। देश के दो मशहूर विश्वविद्यालयों जेएनयू और बीएचयू को नौवें और दसवें स्थान पर जगह मिल पाई। देश के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजों की सूची में दिल्ली के मिरांडा हाउस और लेडी श्रीराम कॉलेज प्रथम व द्वितीय स्थान पर पाए गए हैं। प्रथम 50 श्रेष्ठतम कॉलेजों की सूची में 20 स्थान दिल्ली के कॉलेजों को मिले हैं, जो सूचक है कि देश की राजधानी, भारत की उच्च शिक्षा की भी राजधानी बनती जा रही है। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान द्वारा वर्ष 2021 की रैंकिंग सूची को जारी करते समय जो वक्तव्य दिया गया, उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले कुछ वर्षों में इस रैंकिंग में कुछ विकासशील देशों के संस्थानों को भी सम्मिलित किया जाएगा। निश्चित रूप से एनआईआरएफ को विश्वस्तरीय रैंकिंग बनाने से भारत की बौद्धिक एवं अकादमिक प्रभुता को विश्व स्तर पर स्थापित करने में मदद मिलेगी। ज्ञातव्य है कि शंघाई, चीन की जिओ टोंग यूनिवर्सिटी ने वर्ष 2003 में एकेडेमिक रैंकिंग ऑफ वल्र्ड यूनिवर्सिटी (एआरडब्ल्यूयू) शुरू की थी, जो आज विश्व की प्रमुख तीन रैंकिंग में शामिल है। एनआईआरएफ द्वारा छठी बार देश के श्रेष्ठतम संस्थानों की सूची जारी की जा चुकी है। कोरोना-काल में दूसरी बार यह संभव हो पाया है। क्या इन सूचियों द्वारा हम अपनी उच्च शिक्षा को विश्व स्तरीय बना पा रहे हैं? क्या इस समूची प्रक्रिया में भारत के 90 प्रतिशत औसत दर्जे के संस्थानों को भी मौका मिल पाएगा? ये शिक्षण संस्थान दिल्ली, मुंबई, मद्रास, बेंगलुरु, कोलकाता और चेन्नई जैसे उच्च शिक्षा के हब से दूर ग्रामीण क्षेत्रों व छोटे शहरों में हैं।
एनआईआरएफ रैंकिंग उच्च शिक्षा के चमकते सितारों की चमक-दमक को और ज्यादा लुभावना बनाने में सफल रही है। एनआईआरएफ की रैंकिंग में शीर्ष स्थान प्राप्त करने वाले संस्थानों में कुछ ऐसे संस्थान भी आते हैं, जो निजी हाथों से संचालित हैं। अगर आप गौर से देखें, तो इन सूचियों में राज्य संचालित शिक्षण संस्थान बड़ी संख्या में नहीं मिलेंगे।
साल 2016 में पहली बार शुरू की गई रैंकिंग में राष्ट्रीय स्तर की 11 श्रेणियां बनाई गई थीं। इन श्रेणियों में की गई रैंकिंग से ताकतवर संस्थानों को और ताकतवर बनाने में तो मदद मिल रही है, किंतु वे संस्थान पिछड़ते जा रहे हैं, जो साधन-संपन्न नहीं हैं। भारत जैसे देश में उच्च शिक्षा की एक बड़ी भूमिका पिछड़े क्षेत्रों के युवाओं को बड़े अवसर देने की रही है। क्षेत्रीय स्तर पर ऐसे कई कॉलेज व यूनिवर्सिटियां मिल जाएंगी, जहां से निकले युवाओं ने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तमाम क्षेत्रों में अपनी धाक जमाई। मिसाल के तौर पर, पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जिन कॉलेजों में पढे़, उनका नाम आप इन सूचियों में शायद नहीं खोज पाएंगे। विश्व स्तर पर और देश में भी अनेक नामी कंपनियों में उच्च पदों पर काम कर रहे भारतीयों में अधिकांश वे हैं, जो आईआईटी और आईआईएम में नहीं पढे़ थे। यह एक मिथक है कि प्रतिभा सिर्फ शिखर संस्थानों में ही मिलती है।
देश की उच्च शिक्षा में प्रतिस्पद्र्धा शुरू करने के लिए एनआईआरएफ का विचार उत्तम है, किंतु अब समय आ गया है कि इसकी समावेशी, प्रगतिशील व वस्तुपरक आधारों पर समीक्षा करते हुए इसके तीन संस्करण बनाए जाएं, यथा- वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय। इन तीन प्रकार की श्रेणियों में इस बात पर ध्यान रखा जाए कि आजादी के बाद के सात दशकों में देश में जो कुछ आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास हुआ है, उसमें अनेक प्रकार की असमानताएं मिल जाएंगी। इन तीन प्रकार की रैंकिंग में भाग लेने के फैसले को उच्च शिक्षा संस्थानों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।
एनआईआरएफ में शामिल देश के सर्वश्रेष्ठ 100 संस्थानों में बमुश्किल पांच प्रतिशत विद्यार्थियों को प्रवेश मिल पाता है। मिसाल के तौर पर, दिल्ली विश्वविद्यालय और उससे संबद्ध कॉलेजों में हर साल एक लाख विद्यार्थियों को ही दाखिला मिल पाता है। दिल्ली-एनसीआर में करीब तीन करोड़ की आबादी की उच्च शिक्षा विषयक जरूरतों को पूरा करने के लिए सैकड़ों संस्थान हैं, जिनके नाम इन रैंकिंग में नहीं पाए जाते हैं। उच्च शिक्षा पा रहे चार करोड़ विद्यार्थी ये जानना चाहेंगे कि यदि वे अपने जनपद, राज्य या क्षेत्र में ही पढ़ना चाहते हैं, तो उनके लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प क्या हैं? एनआईआरएफ की रैंकिंग तीन स्तर पर घोषित करने विकल्प खोजने में मदद मिलेगी।
एनआईआरएफ की पिछले छह वर्षों की रैंकिग से साफ जाहिर होता है कि इसका आईआईटी और केंद्र सरकार द्वारा संचालित संस्थानों की तरफ ज्यादा झुकाव है। इसका एक प्रमुख कारण है रिसर्च को अत्यधिक महत्व दिया जाना। जिन विद्वानों या नीति-निर्धारकों ने एनआईआरएफ की रचना की, वे पश्चिमी देशों के रिसर्च प्रधान संस्थानों से जरूर प्रभावित रहे होंगे। भारत में रिसर्च या शोध शिक्षण संस्थानों की जरूरत है, किंतु ऐसे संस्थान 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होंगे। हमारे देश के 90 प्रतिशत कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षण प्रधान हैं या वे रोजगारपरक शिक्षा देते हैं। इन संस्थानों के शिक्षकों और विद्यार्थियों से शोधकार्य करने एवं शोध पत्र प्रकाशित करने की अपेक्षा करना फिलहाल तो मृग-मरीचिका ही होगी। हमें शिक्षा मंत्रालय से आशा करनी चाहिए कि कोविड काल की जमीनी सच्चाइयों को ध्यान में रखते हुए और एनआईआरएफ की भावी संरचना और श्रेणियों पर एक राष्ट्रीय सहमति बनाते हुए इसका एक नया रूप बनाया जाए, जो अगले दशकों में हमारे देश की चुनौतियों और संभावनाओं के अनुरूप हो।
Rani Sahu
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