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पूरे देश में खासतौर पर उत्तर भारत में इस समय शीत का प्रकोप चरम पर है
शकील खान पूरे देश में खासतौर पर उत्तर भारत में इस समय शीत का प्रकोप चरम पर है. ठंडी हवाएं मन को मोह रही हैं, परेशान भी कर रही हैं, ज्यादा ही परेशान. सिक्के का दूसरा पहलू ये है देश के तमाम हिल स्टेशन और दूसरे टूरिज़्म डेस्टिनेशन पर्यटकों से लबालब भरे हैं. बहरहाल, हम इस कंट्रोवर्सी पर बात करेंगे तो विषय से भटक जाएंगे. सो हम कोल्ड वेव्स और बर्फीली वादियों की बात करते हैं. बर्फ से ढकी वादियां लोगों को हमेशा से लुभाती रही हैं, बुलाती रही हैं. बर्फीली वादियों के आकर्षण से कोई अछूता नहीं है, न छोटा, न बड़ा, न अमीर, न गरीब. सो सिनेमा भी इससे कैसे दूर रह सकता है. कैमरे के लैंस को हमेशा से बर्फीली वादियां भाती रही हैं. फिर चाहे वो शिमला-मनाली का बर्फ हो या कश्मीर और गुलमर्ग की बर्फीली और दिलकश वादियां, या फिर स्विटज़रलैण्ड के हसीन नज़ारे.
ये तो हुई हमारी यानि आम लोगों की बातें. बात अगर सैनिकों और सैन्य अभियान की हो, तो उन्हें बर्फ से ढकी ये खूबसूरत वादियां, सुंदर लगने के बजाय दुरूह लगती हैं. दो चार दिन के लिए पूरी तैयारी के साथ घूमने जाना और मौज करना अलग बात है, लेकिन ऐसी जगह लगातार रहकर देश की सीमाओं की रक्षा करना अलग बात है. युद्ध करना तो और भी मुश्किल. लेकिन हमारे जांबाज़ सैनिकों की बात ही कुछ और है. अपनी जान हथेली पर लेकर देश के लिए मर मिटने का जज़्बा लिए ये सैनिक ऐसे अभियान के लिए हमेशा लालायित रहते हैं जहां से लौटकर आने की संभावनाएं कम हों. फिर चाहे वो सियाचिन ग्लेशियर पर हुई जंग का अभियान 'ऑपरेशन मेघदूत' हो या 'ऑपरेशन राजीव'.
सो फिल्मों की बात बाद में. हम भारतीय सेना के शौर्य को रेखांकित करने वाले सियाचिन संघर्ष से जुड़़े 'ऑपरेशन मेघदूत' की बात करेंगे और इसके बाद हुए 'ऑपरेशन राजीव' के बारे में भी जानेंगे. 'ऑपरेशन मेघदूत' भारत के तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य में स्थित सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जे के लिए किए गए ऑपरेशन का कोड नाम था. भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा यह अभियान 13 अप्रेल 1984 को शुरू किया गया था. सेना का यह अभियान मुश्किल टॉस्क था. दरअसल 21000 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस चोटी पर तापमान माइनस 30 डिग्री रहता था और इससे भी नीचे तक चला जाता है. वहां जाने के लिए कुछ खास तरह के साजो सामान के साथ खास कपड़ों की दरकार थी.
1984 में के उस अभियान के वक्त दिक्कत यह थी कि सेना के पास वहां के लिए जरूरी कपड़े थे नहीं और भारत में ये कपड़े बनते नहीं थे. इन कपड़ों के लिए सुदूर यूरोप जाना पड़ता था. एक सूचना के बाद जब भारतीय सेना के अधिकारियों ने यूरोप के उस सप्लायर से बात की जो सियाचिन के लिए जरूरी कपड़ों का निर्माण करता था तो वहां से दूसरे सप्लायर का पता यह कहकर दिया गया कि आप उन्हें आर्डर दे दें, हमारे पास पहले ही बड़ा आर्डर है. आर्डर के बारे में पता किया तो जो जानकारी मिली, उससे भारतीय सेना के हतप्रभ रह गई उसके पांव से तो मानो जमीन ही खिसक गई.
'6500 मीटर की ऊंचाई पर एक जंग होने वाली थी, जंग का परिणाम क्या होगा यह तो सैनिकों को पता नहीं था लेकिन वे यह बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि वहां आने वाली मुश्किलें कौन सी हैं. 21000 फीट की ऊंचाई पर दुश्मनों से जिस खतरनाक चीज़ का सामना उन्हें करना था – वह था मौसम. माइनस 30 डिग्री तापमान वाले उस ग्लेशियर वाले इलाके में सांस लेना, बात कर पाना या चलने-फिरने जितने साधारण काम भी बहुत मुश्किल लगने लगते हैं. सैनिकों को हाई एटीटट्यूड पलमनी ऑडिमा और हाइपोथर्मिया जैसी अनेक जानलेवा बीमारियों का सामना करना पड़ता है' ऐसे हालात में युद्ध तो दूर की बात है वहां जाना और टिके रहना ही बहुत मुश्किल था.'
पहले बात ऑपरेशन मेघदूत की. ये एक ऐसा मुशिकल अभियान था जिसमें भाग लेने वाले सैनिकों के जीवित लौटने की संभावनाएं बहुत कम थीं. इसके बावजूद सैनिकों में इस अभियान में शामिल लेने के लिए होड़ लगी थी. तो चलिए चलते हैं सियाचीन ग्लेशियर की समुद्र सतह से 6500 मीटर ऊंची चोटी पर और जानते हैं इस दिल को दहला देने वाक्ये की रोमांचक दास्तां.
कुछ पर्वतारोहियों ने सेना से संपर्क किया और कहा कि हम जम्मू-कश्मीर की तरफ से सियाचीन ग्लेशियर पर चढ़ना चाहते हैं. कृपया हमें इसकी अनुमति दें. बातचीत के दौरान मिले तथ्यों से और बाद में सेना द्वारा इस बारे में जानकारी जुटाने से ये पता चला कि 1970 से 1980 के दौरान पाकिस्तान सरकार ने पाक छोर की तरफ से सियाचीन की चोटियों पर अनेक पर्वतारोही अभियानों की अनुमति दी है. इसका सीधा मतलब ये हुआ कि अगर कोई देश किसी खास स्थान पर जाने की अनुमति देता है तो उस जगह पर उसका आधिपत्य स्वत: ही माना जाएगा. पाकिस्तान सरकार सियाचीन पर अपना दावा पुख्ता करने के लिए इन अभियानों पर पर्वतारोहियों के साथ पाक सेना का एक अधिकारी भी संपर्क अधिकारी के रूप में भेजता था.
बता दें, सियाचिन ग्लेशियर को लेकर जुलाई 1949 को पाक से एक समझौता हुआ था. जिसमें सीमाओं की स्पष्टता का अभाव था. इस कारण सियाचिन पर किसका अधिकार है यह भी अस्पष्ट था और इस कारण यह विवाद का विषय भी था.
भारतीय सेना ने 13 अप्रेल 1984 कोग्लेशियर पर नियंत्रण के लिए अभियान की योजना बनाई और अंतत: अपने अभियान में सफलता पाई. अब तक तो आप समझ ही चुके होंगे कि यूरोप के सप्लायर ने कपड़ों के आर्डर देने वाले किस देश का नाम बताया होगा, जिसे सुनकर भारतीय सेना के अधिकारियों के पांव के नीचे से जमीन खिसक गई थी. जी हां वो देश पाकिस्तान ही था. जैसे ही सेना को जानकारी मिली कि पाक सियाचिन पर कब्जा जमाने वाला है. सेना ने आननफानन में तत्काल ऑपरेशन मेघदूत को अंजाम देना तय किया. यह भी सुखद संयोग था कि ऑपरेशन पर जाने से पहले यूरोपीय सप्लायर से जरूरी कपड़े मिल गए थे.
अभियान के सूत्रधार ब्रिगेडियर चन्ना थे. नेतृत्व श्रीनगर में 15 कार्प के तत्कालीन जनरल ऑफीसर कमांडिंग लेफ्टीनेंट जनरल प्रेमनाथ हून ने की. ले.कर्नल डी.के.खन्ना की भी इसमें भागीदारी थी. इस अभियान में हिंदुस्तान एयरोनेटिक्स लिमिटेड के हेलीकॉप्टर चेतक द्वारा सफल उड़ान भरी गईं और आपूर्ति सामग्री तथा सैनिकों को पहुंचाया गया. ग्लेशियर पर भारत के अनुकूल स्थिति कायम करने का नेतृत्व तत्कालीन मेजर आर.एस.संधू ने किया. महत्वपूर्ण चोटी बिलाफॉड ला को सुरक्षा के साथ थामने के काम को कैप्टेन संजय कुलकर्णी ने अंजाम दिया. अंतत: ऑपरेशन मेघदूत सफल हुआ और सियाचिन ग्लेशियर पर भारतीय सेना की तैनाती हुई, जो आज भी जारी है.
इसके बाद सियाचीन की पहाडि़यों पर एक और ऑपरेशन को अंजाम दिया गया जिसे ऑपरेशन राजीव के नाम से जाना जाता है. 1987 में पाकिस्तान ने सियाचिन की एक पोस्ट पर कब्जा कर लिया और उसका नाम कायदे आज़म रख दिया था. बाद में भारतीय सेना ने सिख सिपाही सूबेदार बाना सिंह को अपनी कंपनी के साथियों के साथ भेजा. बाना और उसके साथियों ने उस पोस्ट को अपने कब्जे में कर लिया. बाद में उसकी बहादुरी को देखते हुए भारत सरकार ने उस बंकर का नाम 'कायदे आज़म' से बदलकर 'बाना पोस्ट' कर दिया. इस ऑपरेशन का नाम लेफ्टीनेंट राजीव पांडे के नाम पर रखा गया था जो इस अभियान की शुरूआत में शहीद हो गए थे.
बात फिल्मों की. बॉलीवुड की फिल्मों में जो याद हैं उनमें से राजेन्द्र कुमार, साधना और फिरोज खान की आरजू, जिसके गाने उस जमाने में सुपर हिट थे. 'जब जब फूल खिले', शशिकपूर नंदा की फिल्म जिसमें मशहूर गाना था – परदेशियों से न अंखिया मिलाना, परदेशियों को है एक दिन जाना. इस फिल्म से प्रभावित होकर आमिर, करिश्मा की राजा हिंदुस्तानी बनाई गई थी. देवानंद, जीनत की इश्क इश्क इश्क. रणबीर कपूर, दीपिका की ये जवानी है दीवानी. बर्फ में रोमांच वाली हिंदी फिल्म की बात करें तो गद्दार फिल्म याद आती है जिसमें उस दौर के सात विलेन एक साथ आए थे. इसके अलावा भी और ढेर सारी फिल्में हैं, जो कश्मीर और दूसरी बर्फ की वादियों में फिल्माई गईं थी.
हॉलीवुड की बात करें तो जेम्स बॉण्ड सीरीज़ की वर्ल्ड इज़ नॉट इनफ, स्पेक्टर, टुमारो नेवर डाई और सिल्वर स्टेलोन की फिल्म 'क्लिफ हेंगर' की याद आती है. 'क्लिफ हेंगर' की कहानी बहुत रोचक थी. एक प्लेन में बैंक की बहुत बड़ी राशि एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजी जाना है. प्लेन के रास्ते में हिमालय जैसा बर्फ का पहाड़ पड़ता है. बर्फ की चोटियों से पटे इस पहाड़ पर पहले एक प्लेन बराबरी से उड़ान भरता है. फिर विलेन द्वारा पैसे वाले प्लेन में मौजूद अपने साथियों की मदद से उसे कंट्रोल किया जाता है. फिर हवा में ही सारी राशि नए प्लेन में शिफ्ट होती है, उनके लोग शिफ्ट होते हैं और बैंक की राशि ले जा रहे प्लेन को क्रेश कर दिया जाता है. बर्फ से ढकी इस पहाड़ी पर क्रेश हुए प्लेन और उसमें ले जाई जा रही रकम को ढूंढने के मिशन पर हीरो सिल्वेस्टर स्टेलोन निकलता है और दर्शक बर्फ की खूबसूरती और उस पर होने वाले रोमांचक स्टंट से दो चार होते हैं.
बॉलीवुड और हॉलीवुड दौनों को बर्फ पसंद है. लेकिन एक बड़े अंतर के साथ. हॉलीवुड को बर्फ में रोमांचक गतिविधियां करना भाता है तो बॉलीवुड को बर्फीली वादियों में रोमांस करने में मज़ा आता है. हॉलीवुड की फिल्मों में बर्फीली वादियों में स्टंट दृश्य की भरमार है जबकि बॉलीवुड के हीरो-हीरोइन यहां रोमांस करते ज्यादा नज़र आते हैं. वैसे अपवाद दौनों जगह मिल जाएंगे.

Rani Sahu
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