सम्पादकीय

रिश्तों के शीत युद्ध

Gulabi
22 Oct 2020 2:21 PM GMT
रिश्तों के शीत युद्ध
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हमारी हर दिन की जिंदगी में भी शीत युद्ध लगभग वैसा ही है, जैसा दुनिया के बड़े देशों के बीच दो विश्व युद्ध के दौरान रहा है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क।हमारी हर दिन की जिंदगी में भी शीत युद्ध लगभग वैसा ही है, जैसा दुनिया के बड़े देशों के बीच दो विश्व युद्ध के दौरान रहा है. अब तो खैर पूरी दुनिया ही शीत युद्ध में है. मनुष्यता का इतिहास युद्ध से भरपूर रहा है. शांति केवल शब्द तक आई है. भीतर नहीं पहुंची. इसलिए, हम सब अधिकांश समय शीत युद्ध में ही होते हैं. बाहर तो युद्ध नहीं दिखता, लेकिन भीतर युद्ध की निरंतर तैयारी चल रही है! हम गौतम बुद्ध, गांधी की अहिंसा से जितने दूर निकलते जाएंगे, युद्ध में भले न फंसें, लेकिन शीत युद्धों में हमेशा ही उलझे रहेंगे. विश्व की राजनीति हमारी हर दिन की जिंदगी को अब पहले के मुकाबले कहीं अधिक गहराई से प्रभावित करने लगी है. बुद्ध बड़ी सुंदर बात कहते हैं, 'शांति जिसने जानी है, उसकी अशांति हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है. बहुत थोड़े लोग इस दशा को उपलब्ध होते हैं. लोग शांति को जानते नहीं, केवल शब्द सुनते हैं. अशांति का लोगों को अनुभव है, शांति अभी केवल आकांक्षा है, मन की सतह पर बैठी आशा है.'

जब तक हम शांति को अपने जीवन में उतार नहीं पाएंगे, हर पल शीत युद्ध में ही उलझे रहेंगे. हमारा ध्यान, दूसरों पर बहुत अधिक केंद्रित है. हम उनके विषय में ही सोचते रहते हैं. किसी ने ऐसा कहा, तो क्यों कहा? वह इस बात को ऐसे न कहकर ऐसे भी कह सकता था! वह तो मेरे उपकार के कर्ज में ही दबा जा रहा है, उसके बाद भी उसमें कृतज्ञता का अभाव है! हमारी पूरी प्रक्रिया दूसरों पर आधारित है. हमें इस बात को समझने की जरूरत है कि जीवन इतना बड़ा नहीं, जितना हम माने बैठे हैं. वह तो केवल अतीत में है. अब तक जो जिया सब अतीत के हिस्से गया. वर्तमान अतीत की चिंता और कल की बेचैनी में गया, तो शेष बचा क्या! इसलिए, शांति का मन में गहरे बैठना जरूरी है. शांति भीतर बैठ गई, तो बहुत संभव है, हम आज पर टिके रहें! वर्तमान की छाया में ही बैठे रहें. इससे जीवन के प्रति आस्था और विश्वास गहरा होता है.

मन की शांति का एक छोटा-सा किस्सा आपसे कहता हूं. इसका मन की बेचैनी से सीधा संबंध है. अमेरिकी अरबपति एंड्रयू कार्नेगी जब जीवन के अंतिम समय में थे, तो उनकी मौत से दो दिन पहले उनके सेक्रेटरी ने उनसे पूछा, 'आप तो बहुत संतुष्ट होंगे, दस अरब रुपए! जीवन में इससे अधिक संतुष्टि क्या होगी! ' कार्नेगी ने कहा, 'नहीं! मैं तो बहुत बेचैन हूं. अशांति में मर रहा हूं, क्योंकि मेरी योजना तो सौ अरब रुपए कमाने की थी.'

'जीवन संवाद' के पिछले कुछ अंकों में मैंने आपसे भोपाल, जयपुर और लखनऊ के कुछ युवा कारोबारियों, उच्च पदों पर बैठे लोगों के जीवन पर आ रहे संकट का जिक्र किया था. इनके संकट कार्नेगी के संकट से बहुत दूर नहीं हैं. हम उस भारतीय जीवनशैली से दूर निकलते देख रहे हैं, जहां सहअस्तित्व, स्नेह और एक-दूसरे के साथ का बहुत अधिक महत्व था. इस पूरे एक विचार से निकलकर कार्नेगी के रास्ते पर चल रहे हैं.

जीवन का महत्व है! इससे किसे इंकार होगा. क्या धन ही जीवन है. हम उसके पीछे ऐसे दौड़ते हैं कि बाकी सबका साथ छोड़ने लगते हैं. कुछ कुछ वैसे ही जैसे छूट गई रेल को उस समय भी पकड़ने की कोशिश करते हैं, जब वह प्लेटफॉर्म छोड़ गई हो! संभव है, एक बार आप इसमें सफल हो जाएं, लेकिन उससे अधिक कुछ होने की संभावना है. हमें अपने जीवन की ओर लौटने की जरूरत है. अपने रिश्तों के भीतर झांकिए, देखिए, कहीं कोई घुटन तो नहीं. रिश्तो के भीतर जमी खरपतवार को नजरअंदाज मत कीजिए. जीवन को मन के युद्ध में मत खपाइए! जिस चीज को हम भीतर से निकाल देते हैं, वह बाहर अधिक दिन तक नहीं रह पाती. प्रेम ऐसा ही कोमल भाव है. जीवन की ऑक्सीजन है. उसे भीतर सहेजना ही होगा!

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