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यूक्रेन के कारण उत्पन्न हुआ शीत युद्ध जैसा संकट
संजय गुप्त। रूस की ओर से यूक्रेन मामले में कुछ नरमी दिखाए जाने के बावजूद अमेरिका ने जिस तरह एक बार फिर उसे सीधे शब्दों में युद्ध की चेतावनी दी उससे इस संकट पर विश्व की चिंता और गहरा गई है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने नरमी के संकेतों के बीच यूक्रेन को लेकर पश्चिमी देशों को फिर से कठघरे में खड़ा करते हुए नए सिरे से वार्ता की पेशकश की है। पता नहीं यह वार्ता किस तरह आगे बढ़ेगी, लेकिन यह स्पष्ट है कि यूक्रेन के मामले में हालात अमेरिका और सोवियत संघ के बीच दशकों तक चले शीत युद्ध जैसे ही तनावपूर्ण हैं। रूस ने यूक्रेन की सीमाओं पर अपने एक लाख से अधिक सैनिक एकत्र किए हैं और अमेरिका के नेतृत्व में उसके सहयोगी नाटो देश भी सैन्य तैयारी के साथ यूक्रेन को लेकर रूस को किसी दुस्साहस से बचने की नसीहत दे रहे हैं। रूस इससे पहले 2014 में यूक्रेन के हिस्से क्रीमिया पर कब्जा जमा चुका है। तब से लेकर अब तक रूस पर यह आरोप लगता रहा है कि वह यूक्रेन में विद्रोहियों को बढ़ावा दे रहा है ताकि वहां सरकारी कामकाज बाधित हो और परिणामस्वरूप यूक्रेन की सरकार स्वत: कमजोर पड़ जाए। सोवियत संघ के विघटन के समय रूस की पश्चिमी सीमा से सटे कई हिस्से छिटककर अलग राष्ट बन गए थे। उसी कड़ी में 1991 में यूक्रेन एक स्वतंत्र राष्ट्र बना। यूक्रेन के अस्तित्व में आने से इस क्षेत्र में रूस की सामरिक पकड़ कुछ कमजोर पड़ी। इससे कैस्पियन सागर के आसपास रूस की पैठ भी कमजोर हुई। इतना ही नहीं, उसे एक बंदरगाह भी गंवाना पड़ा। रूस तब से इसी कोशिश में था कि वह क्रीमिया या फिर जिन क्षेत्रों के लोगों का सोवियत संघ से अधिक लगाव रहा हो, उन्हें अपने कब्जे में कर ले और 2014 में उसने बिल्कुल वही किया। अब वह यूक्रेन में भी वही दोहराने की कोशिश में है, क्योंकि यूक्रेन की एक तिहाई आबादी रूसी भाषा बोलती है।
टकराव का अखाड़ा बना यूक्रेन
इसमें कोई संदेह नहीं कि रूस विश्व की एक प्रमुख सैन्य शक्ति रहा है। वैश्विक राजनीति में यही उसकी प्रमुख पहचान का पहलू भी है और उसके सामरिक रुतबे का भी स्रोत भी। व्लादिमीर पुतिन जैसे शक्तिशाली नेता का नेतृत्व भी रूस को लगातार कई वर्षों से मिला हुआ है। पुतिन इस प्रयास में हैं कि वह यूक्रेन को किसी भी तरह पश्चिमी खेमे में न जाने दें। इसके तहत वह यूक्रेन सरकार को पूरी तरह अपने अधीन करना चाहते हैं। दूसरी ओर यूरोपीय नाटो देश इस कोशिश में हैं कि यूक्रेन को अमेरिकी नेतृत्व वाले इस संगठन का हिस्सा बनाकर रूस की काट के लिए अपना एक अड्डा तैयार करें। यह माना जा रहा है कि यूक्रेन को नाटो में शामिल कराने के प्रस्ताव के पीछे अमेरिका की पूर्वी यूरोप में अपना दखल बढ़ाने की मंशा है। यह रूस को किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है। यही कारण है कि यूक्रेन को लेकर अमेरिका और रूस के बीच गतिरोध थमने के बजाय बढ़ता ही गया। यहां तक कि कई दौर की बातचीत के बावजूद कोई नतीजा नहीं निकल सका। रूस के रुख को देखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने यूक्रेन से वादा भी कर दिया कि रूसी हमले की स्थिति में वह यूक्रेन की रक्षा करेंगे और नाटो सेनाएं मोर्चा संभालने में देरी नहीं करेंगी। उचित यही था कि पश्चिमी देश यूक्रेन के मामले में ऐसी किसी पहल से बचते जो शीत युद्ध जैसा खतरा उत्पन्न करने वाली हो और अंतत: विश्व शांति के लिए एक चुनौती बन जाए। अगर यूरोपीय देशों ने अमेरिका के कहने पर यूक्रेन को नाटो में शामिल करने के प्रस्ताव को लेकर इतनी हड़बड़ी नहीं दिखाई होती तो आज यह संकट इतने गंभीर रूप में उपस्थित नहीं होता। बेहतर होता कि यूरोपीय देशों के शासनाध्यक्ष अमेरिका के हितों की चिंता करने के बजाय यूक्रेन को लेकर पहले नीर-क्षीर निर्णय लेते और फिर कोई कदम उठाते। उन्हें इसकी भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि रूस और उससे लगते यूरोपीय देशों के बीच परंपरागत संबंध रहे हैं। यूरोप के कई देश अपनी ऊर्जा सुरक्षा, विशेषकर गैस की आपूर्ति के लिए भी काफी हद तक रूस पर निर्भर हैं। यह सुरक्षा यूक्रेन संकट के चलते बाधित हो सकती है। यह यूरोप के अपने हित में है कि वह अमेरिका पर आंख मूंदकर भरोसा करने के बजाय इस संकट के समाधान के लिए कोई बीच का रास्ता निकालने की पहल करे।
फायदा उठाने की फिराक में चीन
यह गौर करने लायक है कि विश्व शांति के लिए पहले भी एक खतरे के रूप में देखा जा रहा चीन इस संकट का फायदा उठाता नजर आ रहा है। दुनिया को इसके प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है। यूक्रेन को लेकर अमेरिका के रुख को देखते हुए इस बात की पूरी संभावना है कि चीन का झुकाव रूस की तरफ हो जाए। इसके संकेत भी नजर आने लगे हैं। इस समय आर्थिक एवं तकनीकी सभी मोर्चों पर चीन रूस से कई कदम आगे निकल चुका है। ऐसे में रूस पर चीन जैसे अलोकतांत्रिक देश की पकड़ मजबूत हुई तो यह दुनिया के लिए खतरे की घंटी होगी। अमेरिकी उकसावे में आकर यूरोप के नाटो देश रूस से दो-दो हाथ करने पर आमादा दिखते हैं। इसकी कोई आवश्यकता नहीं लगती। इस समय आवश्यकता इस संकट को टालने की है। वैसे भी यूक्रेन पर उलझकर नाटो देशों का कोई हित नहीं होने वाला। इससे उनका और साथ ही अमेरिका का ध्यान चीन से भटकेगा, जो अपने विस्तारवादी एजेंडे को पूरा करने के लिए हर हथकंडा अपनाता दिख रहा है। अंदेशा यही है कि यूक्रेन के महाशक्तियों का अखाड़ा बनने पर चीन दुनिया के कई उन देशों में अपना हित साध सकता है जो उसके विस्तारवादी एजेंडे का लक्ष्य रहे हैं।
सक्रियता दिखाए भारत
पूरा विश्व इस समय कोविड महामारी से बाहर निकलने की कोशिश में है। लगभग सभी देश इस दौरान हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई करना चाहते हैं। ऐसे में यूक्रेन संकट पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया को बाधित कर सकता है। रूस और भारत की मैत्री दशकों पुरानी है। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने अमेरिका के साथ भी हर क्षेत्र में नजदीकी संबंध कायम किए हैं। इस लिहाज से भारत इस संकट को दूर करने में बड़ी भूमिका अदा कर सकता है। यूक्रेन मामले में अभी तक भारत ने संयमित-तटस्थ रुख का परिचय दिया है। यह उचित भी है, लेकिन उसे हर स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि भारत इस तनातनी में किसी भूमिका का निर्वाह कर सकता है तो उसको सक्रियता दिखाने से हिचकना नहीं चाहिए। इससे भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि भी होगी और राष्ट्रीय हितों की पूर्ति भी। भारत को सक्रिय होने का कोई अवसर इसलिए नहीं गंवाना चाहिए, क्योंकि यदि यूक्रेन के मसले पर टकराव बढ़ता है तो चीन और रूस के संबंधों में स्वाभाविक रूप से निकटता आएगी और यह भारत के लिए चिंता का कारण बन सकती है। भारत का हित इसी में है कि चीन के विस्तारवादी रवैये के प्रति दुनिया की बड़ी शक्तियों का ध्यान भटकने न पाए।
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