सम्पादकीय

कोकीन और कोयला बने सियासी हथियार

Gulabi
26 Feb 2021 4:31 PM GMT
कोकीन और कोयला बने सियासी हथियार
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पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं लेकिन

पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं लेकिन इन चुनावों की धमक काफी पहले ही सुनाई देने लगी है। पहले नगर पालिका चुनाव की चर्चा राष्ट्रीय मीडिया में बहुत कम होती थी लेकिन अब हैदराबाद हो या पंजाब या फिर गुजरात छोटे चुनावों की चर्चा भी राष्ट्रीय फलक पर हो रही है। इन चुनावों का विश्लेषण भी किया जा रहा है। चुनावों पर चर्चा होना स्वस्थ लोकतंत्र की ​निशानी है। चुनावों के मामले में भारत सदाबहार ही रहता है, यानी भारत में कोई न कोई क्षेत्र इलैक्शन मोड में रहता है लेकिन चुनावों के चक्कर में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिससे साफ है ​कि लोकतंत्र की मर्यादाएं अब बची नहीं। चुनावों में बाहुबल और धनबल का इस्तेमाल तो होता ही आया है। अगर आप स्थूल रूप से प्रजातंत्र के चारों अंगों को देखें तो पाएंगे कि थोड़ी बहुत कमजोरियां तो सब में परिलक्षित होती हैं परन्तु इस राष्ट्र को रसातल में ले जाने का कार्य अगर किसी ने किया है तो विधायिका ने ही किया है। राजनीति में अपवाद स्वरूप ऐसे लोग भी आए जिनका इस्तेमाल राजनीति के लिए नहीं बल्कि राष्ट्र निर्माण की दशा में बेहतर ढंग से किया गया लेकिन वर्तमान दौर में ऐसे चेहरे नजर आ रहे हैं जो भ्रष्टाचार की गंगोत्री के रूप में खड़े हैं। आज चुनाव ऐसी जंग में परिवर्तित हो गए हैं जिनमें राजनीतिक दलों के ​िलए एक ही टास्क कि किसी भी तरह चुनाव जीतो। हमने पूर्व में देखा है कि कम विधायक लाकर भी राजनीतिक दल सरकारें बना लेते हैं या फिर सत्तारूढ़ दल के विधायक इस्तीफा दे देते हैं। वैचारिक और सैद्धांतिक तौर पर कुछ नहीं बचा है। मध्य प्रदेश और पुड्डुचेरी तक यही हुआ है।


पश्चिम बंगाल के चुनावों में कोकीन और कोयले की एंट्री इतनी जबर्दस्त ढंग से हुई है कि दोनों तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के लिए नुकीले हथियार बन चुके हैं। कोकीन और कोयला घोटाले को लेकर दोनों ही दल एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। किसके दावों में कितना दम है इसका खुलासा तो लम्बी जांच प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही चलेगा। कोकीन और कोयला दोनों ही मामले चुनावों से ठीक पहले ही उछले हैं और टाइमिंग को लेकर सवाल तो उठेंगे ही।

सीबीआई की टीम ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के घर जाकर कोयला मामले में उनकी पत्नी रुजिरा से पूछताछ करती है। इससे पहले रुजिरा की बहन से भी पूछताछ की गई। भाजपा कह रही है कि दाल में बहुत कुछ काला है, जबकि तृणमूल इसे राजनीतिक साजिश करार दे रही है। इसी बीच भाजपा नेत्री पामेला को और उनके मित्र प्रबीर कुमार को गिरफ्तार कर लिया जाता है। पामेला के थैले और कार से दस लाख की कीमत की 90 ग्राम काेकीन बरामद की गई। पामेला के बयान के बाद भाजपा के ही नेता राकेश सिंह को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उनके दोनों बेटों को भी पुलिस के कामकाज में बाधा पहुंचाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। पश्चिम बंगाल पुलिस ने अदालत को बताया कि राकेश सिंह कुख्यात हिस्ट्रीशीटर है और उसके खिलाफ 56 आपरा​िधक मामले हैं। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान ईश्वर चन्द्र विद्यासागर की प्रतिमा को तोड़ने के मामले में भी राकेश का नाम सामने आया था। पश्चिम बंगाल में ऐसी आपाधापी मची हुई है कि आम जनता को कुछ समझ में नहीं आ रहा कि आखिर हो क्या रहा है। कभी भाजपा की रथयात्रा को रोका जा रहा है तो कोई दिन ऐसा नहीं जाता जिस दिन हिंसा की खबरें न आती हों। भाषा की मर्यादाएं टूट रही हैं। लोकतांत्रिक शिष्टाचार और मर्यादाओं का घोर उल्लंघन किया जा रहा है। तमिलनाडु में भ्रष्टाचार के मामले में चार वर्ष की सजा काट कर स्वर्गीय जयललिता अम्मा की अंतरंग सहेली शशिकला जनता के बीच पहुंच कर जयललिता के समर्थकों को एकजुट होने की अपीलें कर रही हैं। केरल की सियासत में भी खूनी खेल खेला जा रहा है। झड़पों में संघ कार्यकर्ताओं की हत्याएं की जा रही हैं। असम में भी हर पार्टी ध्रुवीकरण का खेल खेल रही है। पुड्डुचेरी जैसे छोटे राज्य में भाषा का मसला मुद्दा बन रहा है।

लोकतंत्र या लोकशाही भी एक परीक्षा है। इससे कठिन परीक्षा कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। गठबंधन के दौर में तो विभिन्न रुचियों और स्वभाव वाले दल एक साथ एक ही लक्ष्य के लिए परीक्षा देने को तैयार हैं। वैचारिक मतभिन्नता के बावजूद तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल गठजोड़ कर रहे हैं। लक्ष्य सिर्फ इतना है कि हथकंडे अपनाकर चुनाव जीतना। चुनाव अब युद्ध का मैदान बनते जा रहे हैं। लोकतंत्र में ऐसी प्रवृत्तियों से बचने की जरूरत है। अगर घोटाले हुए हैं तो उनकी परत दर परत खुलनी ही चाहिए लेकिन समस्या यह है कि यह सब कुछ राजनीति से प्रभावित नहीं होना चाहिए। राजनीतिक दलों को भी ऐसे लोगों को पार्टी में शामिल करने से परहेज करना चाहिए जिनकी पृष्ठभूमि आपराधिक है। दुख तो इस बात का है कि कोई भी राजनितिक दल इस बीमारी से अछूता नहीं है। लोकतंत्र लोकलज्जा से चलता है लेकिन अब लोकलज्जा बची ही नहीं।


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