सम्पादकीय

बच्चों की मनोदशा को समझें कोचिंग संस्थान

Kunti Dhruw
3 Sep 2023 12:07 PM GMT
बच्चों की मनोदशा को समझें कोचिंग संस्थान
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इंजीनियर और डॉक्टर बनने की चाह लिए लाखों की तादाद में बच्चे राजस्थान के कोटा में अपना अस्थाई आशियाना बनाते हैं। नीट और आईआईटी जेईई में जगह बनाने के लिए जी जान लगा देते हैं। खाने, सोने और रहने जैसे तमाम चुनौतियों के बीच पढ़ने को प्राथमिकता दिए रहते हैं। साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक आदि टेस्ट से भी गुजरते रहते हैं। अधिक अंक पाने की होड़ में सब कुछ मानो लुटाने के लिए तैयार रहते हैं। कम नींद और अधिक पढ़ाई के बीच सामंजस्य बनाना 11वीं और 12वीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए किसी संकट से कम नहीं है और यह संकट तब विकराल रूप ले लेता है जब तमाम कोशिशों के बावजूद अंकों का ग्राफ ढलान पर होता है।
इन दिनों कोटा फलक पर है
नतीजन एक अबोध छात्र आत्महत्या को अंतिम विकल्प समझने लगता है। गौरतलब है कि इन दिनों कोटा फलक पर है जिसमें पहला कारण इंजीनियर और डॉक्टर बनने की पहचान के रूप में तो दूसरा बढ़ते दबाव के बीच व्यापक होती आत्महत्या के चलते। आंकड़ा यह बताता है कि साल 2023 में महज 8 महीने में 24 बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं जिसमें दो बच्चों ने अगस्त के अंतिम सप्ताह में एक ही दिन में आत्महत्या को अंजाम दिया।
पड़ताल बताती है कि साल 2015 से कोटा में होने वाले आत्महत्या के आंकड़े सरकार ने जुटाना शुरू किया है जो 2023 में अभी सर्वाधिक की ओर है। आत्महत्या के बढ़ते मामलों से सरकार, समाज, कोचिंग संस्थान और अभिभावक से लेकर पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी बेशक चिंतित है मगर इसे लेकर कोई रणनीति अभी तक सामने नहीं आई कि आखिर नौनिहालों की आत्महत्या कैसे रोकी जाये। कोई पंखे से लटक रहा है तो कोई ऊँचे भवन से छलांग लगा रहा है जो हर हाल में सभ्य समाज के माथे पर बल लाने वाला विषय है।
वैसे इसके कारणों को वर्गीकृत किया जाए तो पहली जिम्मेदारी अभिभावक की ओर होती है। भारतीय दिमागी तौर पर अनेक अपेक्षाओं से भरे हैं और उसी के अनुपात में कई दबाव को स्वयं पर प्रभावी किये रहते हैं। इस बात को बिना जाने-समझे अभिभावक बच्चों को प्रतिस्पर्धा की उस होड़ में झोंक देते हैं कि उसमें डॉक्टर या इंजीनियर बनने की क्षमता है भी या नहीं। बच्चे दोस्ती करने की उम्र में एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धी बन जाते हैं और अंकों के दबाव में अध्ययन को अपनी मनोदशा पर इतना प्रभावी कर लेते हैं कि गलत कदम के लिए भी तैयार हो जाते हैं। प्रत्येक बच्चे के दबाव सहने और पढ़ने-लिखने की क्षमता है उसे दूसरों की तुलना में श्रेष्ठ बनाने की फिराक में मनोवैज्ञानिक दबाव से बाज आएं।
भारी-भरकम फीस चुका देना और घर से जरूरी खर्चे भेज देना और अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री कर देना यह अभिभावक के लक्षण के लिए सही नहीं है। कोचिंग में क्या हो रहा है, बच्चे जहां रहते हैं वहां के पर्यावरण और उनके विचार में क्या ताल-मेल है कहीं वह अतिरिक्त दबाव से तो नहीं जूझ रहा है। ऐसा तो नहीं कि उसके मन मस्तिष्क में तुलनात्मक कुछ ऐसा चल रहा है जिससे आप अज्ञान बने हुए हैं आदि तमाम बातें इसलिए जानना जरूरी है ताकि अभिभावक अपने बच्चों को बचा पायें।
जिन बच्चों ने ऐसी तमाम समस्याओं के चलते अपने जीवन को समाप्त करने का निर्णय लिया उनके माता-पिता आज इस बात का अफसोस कर रहे होंगे कि काश समय रहते हम अपने बच्चे के मन को पढ़ पाते। स्वयं बच्चों का मन न पढ़ पाने वाले अभिभावक उसे पढ़ने के लिए कोटा भेज देते हैं। सवाल है कि क्या कम उम्र के बच्चे घर से दूर रहकर बहुत खुश रहेंगे इसकी उम्मीद थोड़ी कम ही है। इंजीनियर और डॉक्टर बनाने की चाह में कई अभिभावकों ने इस मामले में नासमझी तो की होगी।
राजस्थान के कोटा में सैकड़ों की तादाद में कोचिंग सेंटर हैं जिसमें आधा दर्जन कोचिंग सेंटर पूरे देश में अपनी पहचान रखती है। इन सेंटरों में अध्ययन करने वाले ये अबोध बच्चे इस मनोदशा से गुजरते हैं इनकी पहचान कोचिंग संस्थानों को भी होनी चाहिए। लाखों रुपये बच्चों से जुटाने वाले संस्थान केवल पढ़ाने और टेस्ट में नम्बर लाने तथा अंतिम नतीजे में उसे एक प्रोडक्ट के रूप में इस्तेमाल करने तक ही सीमित न हों बल्कि उसके दिमाग पर बढ़ता दबाव भी अपनी खुली आंखों से देखें और समझें। परेशानी की स्थिति में अभिभावक से सम्पर्क साधे और बच्चे के स्वास्थ्य और उसके रखरखाव को लेकर अपनी जिम्मेदारी निभाने से कोचिंग स्वयं को न रोके।
शायद यही कारण है कि राजस्थान सरकार ने कोचिंग संस्थानों में दो माह तक किसी भी प्रकार के टेस्ट की पाबंदी लगा दी है। इसे लेकर प्रशासन का मत है कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर टेस्ट का बुरा प्रभाव पड़ता है। गौरतलब है कि न केवल टेस्ट का बच्चों पर दबाव होता है बल्कि जब अंकों को सार्वजनिक किया जाता है तो यह एक अलग तरीके की मनोदशा का विकास करता है। कोटा में कोचिंग कारोबार जिस अवस्था में है उसके इर्द-गिर्द हर प्रकार के बाजार का होना स्वाभाविक है।
यहां हजारों की तादाद में मान्यता प्राप्त हॉस्टल हैं साथ ही निजी कमरे भी किराये पर बच्चे लेते हैं। जहां कम-ज्यादा किराये का दबाव स्वाभाविक है। आर्थिक दबाव भी बच्चों के मन:स्थिति पर कमोबेश असर तो डाल ही रहा होगा। ऐसे में मकान मालिक या हॉस्टल संचालक की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वो बच्चों की आर्थिक वेदना को भी समझे। पढ़ाई, टेस्ट और अंकों की होड़ आदि के दबाव के साथ आर्थिक दबाव भी उसके मन मस्तिष्क को गलत अनुभव जरूर करा रहा होगा।
हालांकि राजस्थान में जयपुर और सीकर जिला भी अच्छा खासा कोचिंग का विस्तार ले चुका है। स्वयं के व्याख्यान के दौरान मैंने महसूस किया कि सीकर का प्रिंस कॉलेज जो स्नातक और परास्नातक के साथ-साथ सिविल सेवा परीक्षा ही नहीं बल्कि डॉक्टर, और इंजीनियर सहित रक्षा सेवा में भी कोचिंग प्रदान करता है और स्वयं में एक अनूठा संस्थान है। 40 हजार के अधिक विद्यार्थी वाला यह परिसर मोबाइल मुक्त है तथा छात्रों की सुरक्षा के मामले में कहीं अधिक उत्कृष्ट है।
वैसे शैक्षणिक दबाव तनाव का कारण तो है, असफलता और निराशा की भावनाएं कभी भी प्रभावी हो सकती है। अवसाद, चिंता और विकार जैसी मानसिक समस्याएं भी आत्महत्या में भूमिका निभा रही हैं। तनाव, अकेलेपन और उपेक्षा की स्थितियां भी बच्चों को मुसीबत दे रही हैं। यह समझना कहीं अधिक आवश्यक है कि पढ़ाई प्रोडक्ट नहीं है और बच्चे किसी फैक्ट्री में नहीं है। इंजीनियर, डॉक्टर की तैयारी का मतलब यह कहीं से नहीं है कि बच्चों पर उनकी उम्र से अधिक बोझ डाला जाये, उन्हें नौनिहाल जीवन से काट दिया जाये और केवल प्रतिस्पर्धा से जोड़ दिया जाये। जानकारी तो यह भी मिलती है कि सालों से तैयारी करने और कोचिंग संस्थाओं में लाखों की फीस भरने के बावजूद जब बच्चों का चयन नहीं होता है तो वह सुसाइड जैसा कदम उठा लेता है।
अभिभावक को यह समझ लेना चाहिए कि बच्चा स्वस्थ रहेगा और जीवित रहेगा तभी कुछ बनने की ललक भी सम्भव होगी और कोचिंग संस्थान भी यह समझ लें कि केवल फीस लेकर अपनी तिजोरी भरने और बच्चों के दिमाग में दबाव भरने तक ही सीमित न रहें। जबकि समाज के लोगों को इस बात का चिंतन-मनन करना चाहिए कि आईएएस, पीसीएस या डॉक्टर, इंजीनियर न बनने की स्थिति के बावजूद एक अच्छे इंसान बनने की दरकार बनी रहती है ऐसे में असफल या कम अंक प्राप्त बच्चे या प्रतियोगी उपेक्षा नहीं बल्कि सम्मान की दृष्टि से देखें। फिलहाल माता-पिता के लिए उसकी संतान सर्वोपरि है, सबसे अधिक चिंता वह स्वयं करें और कोचिंग संस्थान भी बच्चों की मनोदशा से अनभिज्ञ न रहें।
डॉ. सुशील कुमार सिंह, वरिष्ठ स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक
(यह लेखक के अपने विचार हैं)
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