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जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन से संबंधित ताजा रिपोर्ट, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने 'मानवता के लिए खतरनाक स्थिति' के रूप में परिभाषित किया है, हर अकल्पनीय आपदा को रेखांकित करती है। इससे परे यह भारत के लिए कोई ब्रेकिंग न्यूज (नई खबर) नहीं है। भारत वास्तव में कई दशकों से जलवायु परिवर्तन के त्वरित और गंभीर परिणामों का गवाह और शिकार रहा है। रिपोर्ट में उजागर हर खतरा भारत के समकालीन इतिहास में दर्ज है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में हाल ही में हुए भूस्खलन बढ़ते खतरों के सबूत हैं। सभी जिलों के एक तिहाई से अधिक हिस्से सूखे और बाढ़ की चपेट में हैं-पिछले कुछ हफ्तों में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हजारों गांव बाढ़ से जलमग्न हो गए हैं, जो कि केवल कुछ घंटों की अनियमित और रिकॉर्ड बारिश के कारण हुआ है।
हिमालय में ग्लेशियरों के पिघलने के बारे में वर्ष 2005 से जानकारी है। भीतरी इलाकों में भूजल स्तर के घटने को तीन दशक से ज्यादा समय से दर्ज किया गया है, जैसा कि मेरी किताब द गटेड रिपब्लिक में वर्णित है। पूरे पूर्वी तट पर और अब पश्चिमी तट पर भी उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की संख्या में वृद्धि एक जीवंत अनुभव है। मानवीय और प्राकृतिक कारणों से तटीय क्षेत्रों के जलमग्न होने की बात भी जगजाहिर है। 1990 के दशक की शुरुआत में, इस स्तंभकार ने उत्तरी कर्नाटक में माविंकुर्वे के पास के गांवों के जलमग्न होने की एक पत्रकार के रूप में रिपोर्टिंग की थी। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के 2018 के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत के समुद्र तट के 7,500 किलोमीटर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कटाव हुआ है। मौसम की चरम घटनाएं, भारी वर्षा और बाढ़ अब हर साल की बात हो गई है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंद महासागर के साथ-साथ अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के वैश्विक औसत से अधिक तेजी से गर्म होने से स्थिति और भी खराब हो जाएगी। समुद्र के बढ़ते स्तर से कोच्चि, चेन्नई, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों के अस्तित्व को खतरा है, जहां तीन करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। वैश्विक कदमों के लिए भारत की प्रतिक्रिया कई कारकों और जरूरतों पर निर्भर करती है, जो भू-राजनीति को परिभाषित करती हैं। अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाएं अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से नया स्वरूप देने के लिए, वैश्विक फंड एन्वायरॉन्मेंटल, सोशल ऐंड गवर्नेंस (ईएसजी) नामक एक नया फिल्टर स्थापित कर रही हैं, ताकि खरबों डॉलर के निवेश के प्रवाह को नियंत्रित किया जा सके।
सवाल यह है कि भारत जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष और संभावित परिणामों को कम करने के लिए घरेलू स्तर पर क्या कर सकता है। अब जबकि भारत आजादी के 75 वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है, यह जीवन और आजीविका के निर्वाह को सुनिश्चित करने का एक उपयुक्त क्षण है। भारत को स्थानीय समाधानों पर मुखर होना चाहिए और सभी चुनौतियों से निपटने के लिए शासन के ढांचे को फिर से आकार देना चाहिए। शुरुआत के लिए यहां पांच विचार सुझाए जा रहे हैं- कमजोरों की पहचान : भौगोलिक और आर्थिक भूभाग-आवास और क्षेत्र, जो सबसे अधिक प्रभावित होंगे, का मानचित्रण करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करना महत्वपूर्ण है। संकट शमन और आपदा प्रबंधन पर भारत की नीति बचाव और मुआवजे के इर्द-गिर्द घूमती है।
लोगों को खतरे के क्षेत्रों से बाहर निकालने के लिए जोखिम के आधार पर वर्गीकृत प्रवास योजना की ओर बढ़ने और अनिश्चितता का सामना कर रही आबादी को आजीविका के लिए फिर से कुशल बनाने की जरूरत है और पेट्रो अर्थव्यवस्था वाले देशों से डॉलर भेजने वाले पश्चिम एशिया में कार्यरत 35 लाख श्रमिकों के लिए भी दूसरी योजना के बारे में सोचना चाहिए। फसलों का फिर से मानचित्रण : भारत को अपनी एक अरब से ज्यादा की आबादी को खिलाने के लिए पानी बहुत महत्वपूर्ण है। पंजाब और हरियाणा में किसान धान उगाने के लिए भूजल का दोहन कर रहे हैं, और गन्ना कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है।
अब समय आ गया है कि 'प्रति बूंद अधिक फसल' के विचार को धरातल पर उतारा जाए। रिजर्व बैंक की 2020 की प्राथमिकता क्षेत्र ऋण नीति और ई-रुपी की सुविधा से ड्रिप सिंचाई और सौर खेतों को बढ़ावा मिल सकता है। ठीक नए कृषि कानूनों की तरह, राज्यों को मॉडल फार्मों के जरिये सफलता का प्रदर्शन करना चाहिए, जैसा, सी सुब्रमण्यम ने हरित क्रांति के लिए किया था। सौ नए स्मार्ट शहरों के विचार को पुनर्जीवित करें : भारत का शहरीकरण आकांक्षा और उदासीनता के बीच फंसा हुआ है। ग्रामीण और शहरी परिभाषाओं के बीच फंसे करीब 3,500 कस्बों का अस्तित्व नए शहरों को स्थापित करने का अवसर प्रदान करता है।
सैटेलाइट चित्रों, स्थलाकृति का अध्ययन, और आधुनिक शहरी योजना का उपयोग करके, इन कस्बों/शहरों को रहने और आजीविका के लिए आत्मनिर्भर पारिस्थितिकी तंत्र के मॉडल के रूप में स्थापित किया जा सकता है। सरकारों को बस इतना करना है कि वह बुनियादी ढांचा तय करे और निजी क्षेत्र को निर्माण के लिए आमंत्रित करे। खुदरा सौर क्रांति : भारत की ऊर्जा की कहानी किलोवाट/प्रति घंटे की आकांक्षाओं पर टिके रहने के बजाय मेगावाट महत्वाकांक्षाओं के जाल में फंसी हुई है। उत्सर्जन पर अंकुश लगाने की खातिर शहरी आबादी को बिजली घरों पर निर्भरता से दूर करने के लिए आय-आधारित प्रोत्साहनों द्वारा समर्थित नीतिगत ढांचे को अपनाने की एक आसान राह की आवश्यकता है। छतों पर सौर पैनल लगाना एक उपाय है, लेकिन इसके लिए रॉकेट वैज्ञानिक से एक वकील बनने की आवश्यकता है।
ग्लोबल ग्रैंड चैलेंज : भारत स्टार्टअप और नए व्यवसायों के प्रमुख केंद्र के रूप में उभर रहा है। क्यों न जलवायु परिवर्तन को कम करने के व्यावसायिक विचारों के लिए एक ग्लोबल ग्रैंड चैलेंज की स्थापना की जाए-चाहे यह गतिशीलता को लेकर हो या पुनर्कौशल को लेकर, जो जरूरी कर सुविधा के साथ घरेलू अर्थव्यवस्था का विस्तार कर सकता है। राजनीतिक अर्थव्यवस्था को पर्यावरण अनुकूल बनाने का सकारात्मक लाभ है- रोजगार, आय एवं सतत विकास। स्वतंत्रता का 75वां वर्ष राजनीतिक वर्ग को लोगों की आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए प्रेरित करता है।
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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