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- चंडीगढ़ पर घमासान : ये...
संजय वोहरा
अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी मिलने के बाद उत्तर भारत में बनाया और बसाया गया सबसे आधुनिक, व्यवस्थित और खूबसूरत शहर चंडीगढ़ (Chandigarh) किसका है? ये बहस एक बार फिर छिड़ गई है. पंजाब (Punjab) ने फिर मांग की है कि दोनों राज्यों (पंजाब व हरियाणा) की संयुक्त राजधानी केंद्र शासित क्षेत्र चंडीगढ़ उसे फ़ौरन सौंपा जाए. यूं तो ये मांग नई नहीं है, लेकिन अचानक एक दिन के लिए (1 अप्रैल 2022 को) पंजाब विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इस बारे में एकसुर में प्रस्ताव पास किए जाने का सीधा-सीधा कारण भारत की केन्द्र सरकार का वो ताज़ा फैसला ही है, जिसके तहत चंडीगढ़ प्रशासन और पुलिस के कर्मियों पर केंद्र सरकार (Central Government) के नियम लागू करने का ऐलान किया गया.
भाषा के आधार पर 1966 में पंजाब पुनर्गठन अधिनियम के ज़रिए वजूद में आए, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा, के बीच बसा ये इकलौता शहर है जो तीनों राज्यों के बीच में है. क्योंकि ये पंजाब की ज़मीन पर बसा है, इसलिए पंजाब का इस पर हक़ होना कुदरती तौर पर लाज़मी है. ये बात हरियाणा को पहले ही समझ आ गई थी, लिहाज़ा उसने इसके बगल में पंचकुला शहर को एक राजधानी की तरह ही बनाया और लगातार वैसे ही इसमें व्यवस्थाएं लागू कीं. लेकिन संयुक्त राजधानी के तौर पर चंडीगढ़ से वो अपना दावा छोड़ना नहीं चाहता.
हरियाणा की विधानसभा भी और राजभवन भी चंडीगढ़ में है. दोनों का हाई कोर्ट भी एक ही है. चंडीगढ़ कहीं सच में छिन ही ना जाए इसलिए पंजाब ने भी विकल्प के तौर पर मोहाली को इसी तैयारी के साथ खड़ा किया कि ज़रूरत पड़ने पर राजधानी बनाया जा सके. वैसे चंडीगढ़ के प्रशासन में पंजाब , हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के कर्मचारी शुरू से ही एक संतुलन के साथ रखे जाते रहे हैं, जिसमें पंजाब का पलड़ा भारी रहता है लेकिन धीरे-धीरे इसमें बदलाव भी लाया जाता रहा.
सबका स्वागत करने वाला शहर चंडीगढ़
तेज़ी से एक मेट्रो सिटी के रूप में तबदील हो रहे चंडीगढ़ ने एक ऐसे उदार शहर के तौर पर खुद को विकसित किया है जिसमें तीनों राज्यों की लोक परम्पराओं और संस्कृति का मेल तो है ही दूर दराज़ के यूपी बिहार तक के गांवों से आकर बसे लोगों का स्वागत और सम्मान भी है. हिंदी, गढ़वाली, अवधी, भोजपुरी और मैथिली बोलने वाले भारतीय ही नहीं यहां तो पड़ोसी देश नेपाल से आकर बसे हुए भी कईं परिवार भी हैं. मज़ेदार बात ये भी है कि अपनी जबान के साथ-साथ ये तमाम लोग यहां अच्छे से पंजाबी समझते हैं, बोलते हैं और कई तो गुरमुखी पढ़ लिख भी लेते हैं.
इनकी एक पीढ़ी तो यहां पल बढ़कर जवान ही नहीं हुई, उसने अगली पीढ़ी को भी जन्म दिया है. वो बात अलग है कि यहां रहने वाले पंजाबियों में पंजाबियत कम होती जा रही है. बेहद उदारता से चंड़ीगढ़ वालों ने क्षेत्रीय भाषा पर राष्ट्रभाषा को तरज़ीह देनी शुरू की. पहले अंग्रेज़ी को और इसके बाद हिंदी को अपनाया. जितनी शिद्दत से बैसाखी, गुरपुरब, दीपावली और क्रिसमस मनाए जाते रहे, अब छठ पूजा की तैयारी भी सार्वजनिक और सरकारी तौर पर उससे कम नहीं होती. गुरुद्वारों की यहां बड़ी संख्या है और मन्दिरों की भी तकरीबन वही होगी, लेकिन गिरिजाघर, मस्जिद, बौध मठ से लेकर तमाम अन्य पूजास्थल भी हैं. हालात करीब-करीब वैसे ही कहे जा सकते हैं जैसे मुंबई में रहने वाला भोपाली हो या पंजाबी, मराठी कल्चर को अपनाता है, समझता है, मराठी ज़बान बोलता है और 'गणपति बप्पा मोरया' कहते हुए गणेश उत्सव के आयोजनों में जोश खरोश से शरीक होता है.
इंटरनेट का ज़माना आने और वैश्वीकरण के प्रभाव के बीच तेज़ी से बदलते परिवेश में आधुनिकता, बहुमंजिला फ्लैट संस्कृति और मॉल्स वाली तड़क भड़क में वो चंडीगढ़ कहीं गुम होता जा रहा है, जिसे पंजाबी बोली में 'चिट्टी दाढ़ियां अते हरी झाडियां दा शहर' (हरा-भरा और बुजर्गों के लिए प्रिय शहर) कहते हैं. 'वर्ल्ड क्लास सिटी' और 'कॉर्पोरेट' सोच के तहत अब बन रहे अलग तरह के चंडीगढ़ ने सामरिक, शैक्षिक और व्यवसायिक महत्व को बढ़ा लिया है, जहां अब पंजाबी और गैर पंजाबी काफी रईस लोगों के आर्थिक हित भी खासी अहमियत रखने लगे हैं.
चंडीगढ़ की सीमाओं के आसपास सैंकड़ों करोड़ रुपयों की लागत से अंधाधुंध बनती मल्टी स्टोरी बिल्डिंगे ही नहीं अपने आप में अच्छे खासे नए नगर भी डेढ़-दो दशक में बन कर तैयार हो गए हैं. इनमें पैसा तमाम राजनीतिक दलों से जुड़े नेताओं का भी लगा है. वहीं बहुत से ऐसे भी हैं जो इन्हें बनाते-बनाते सियासत में आए और नेता भी बन गए. अन्य जगहों की तरह यहां भी बहुतेरे बिल्डर हैं जो राजनीतिक दलों के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आर्थिक पोषण में भूमिका निभाते हैं. ये एक ऐसा वर्ग है जो कभी नहीं चाहेगा कि चंडीगढ़ का केंद्र शासित क्षेत्र वाला स्टेट्स खत्म हो. इसकी वजह है चंडीगढ़ की इमेज जो एक बहु सांस्कृतिक, तरक्की पसंद, उदार, पर्यावरण प्रेमी, साफ़-सुन्दर के साथ-साथ अनुशासित शहर के तौर पर बनी हुई है. ये वर्ग जानता है और देख भी रहा है कि चंडीगढ़ के आसपास हरियाणा और पंजाब में बसे नगरों में सम्पति की कीमतें इसीलियए बढ़ी हुई मिलती हैं क्योंकि उनको चंडीगढ़ के करीब होने का फायदा मिलता है. अंदाज़ा लगाने के लिए एक मिसाल ये भी है कि चंड़ीगढ़ में सम्पत्ति और किराए दिल्ली से कतई कम नहीं हैं.
क्यों बना रहा है ये एक अच्छा शहर
तमाम पहलुओं से चंडीगढ़ के बेहतर होने और इसकी वैल्यू बढ़े रहने का एक प्रमुख कारण है यहां का सिस्टम जिसमें राजनीतक दखल अपेक्षाकृत काफी कम है. ये सिस्टम यहां यूनियन टेरेटरी कैडर के साथ पंजाब और हरियाणा की अफसरशाही ने मिलजुल कर बनाया है. बड़े अफसर यहां कुछ अरसे के लिए डेपुटेशन पर आते हैं और ज्यादातर की कोशिश होती है कि बिना विवाद में फंसे कार्यकाल पूरा करके निकल लें. हां जिनका मन रम जाता है वो चंडीगढ़ में स्थाई तौर पर बसने का बन्दोबस्त ज़रूर करते हैं. यूं भी कहा जा सकता है कि आमतौर पर अफसर पुराने सिस्टम में छेड़-छाड़ किए बिना उसे चलाए रखने में विश्वास रखते है. ये एक दूसरे पर वाच डॉग का काम भी करते हैं जब तक इनके निजी हित एक न हों और इनमें साठ गांठ न हो.
वहीं शहर में लोगों की चुनी हुई सरकार के तौर पर नगर निगम भी है जो अलग तरह से स्थानीय सरकार भी है और हल्के फुल्के ही सही मगर एक सियासी दबाव वाले गुट के तौर पर भी दखल रखता है. वहीं पंजाब का राज्यपाल ही यहां का प्रशासक भी होता है. विभिन्न तरह के शासकीय दखल से कानूनों की पहरेदारी जैसे संतुलन वाले इन हालात में चंडीगढ़ शहर का तंत्र बिना उल्टी-पुल्टी छेड़छाड़ किए अपनी रफ्तार से चलता रहता है. तमाम राजनीतिक दल इस बात से वाकिफ हैं कि किसी एक पक्ष का यहां के शासन पर जहां पलड़ा भारी हुआ, वहीं ये संतुलन बिगड़ेगा जो चंडीगढ़ की उदार, तरक्की पसंद, अनुशासित शहर के उस छवि को धक्का लगेगा. यहां के अनुशासन की एक बानगी तो यहां की यातायात पुलिस की सख्त कार्यशैली ही है जो ट्रैफिक कानूनों का उल्लंघन करने वालों के लिए विलेन के लिए खतरनाक विलेन की इमेज रखती है. खुद चंडीगढ़ में रहने वाले पंजाबी और गैर पंजाबी नागरिक भी मानते हैं कि उनके शहर के हालात पड़ोसी पंजाब और हरियाणा शासित शहरी इलाकों से बेहतर हैं.
सच में मुद्दा या टकराव की सियासत की नौटंकी
राजधानी के तौर पर चंडीगढ़ को पूरी तरह पंजाब को सुपुर्द करने की मांग राजनीतिक स्तर पर अरसे से उठती रही है. अकाली आन्दोलन का एक मुद्दा ये भी रहा है. इस पर विधानसभा में पहले की सरकार ने प्रस्ताव भी पास किए, लेकिन हालिया सालों में ये कभी भी ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं बनाया गया, जिस पर धरने प्रदर्शन किए गए हों या वैसा आंदोलन खड़ा हुआ. न ही पंजाब के सियासी नेता इस पर जोरदार तरीके से अड़े रहे जबकि राज्य और केंद्र में एक ही पार्टी या गठजोड़ की सरकार रही हो. शायद सब ये समझते और मानते हैं कि चंड़ीगढ़ का यूटी स्टेटस बना रहे तो अच्छा है.
सबको अब तक इसमें अपने हितों की रक्षा होती दिखाई देती रही है. सवाल उठता है कि हाल ही में भगवंत मान के नेतृत्व में पंजाब में बनी आम आदमी पार्टी की सरकार ने चंडीगढ़ पंजाब को सौंपे जाने का प्रस्ताव पास किया और जिसे भारतीय जनता पार्टी के विधायकों को छोड़ सभी पार्टियों के विधायकों ने एक सुर में पास करने की हामी भरी. क्या ये सिर्फ पंजाब के प्रति अपनी निष्ठा साबित करने की एक सियासी चाल है? या केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी की सरकार से मुकाबला करने की हिम्मत रखने वाला साबित करने की कोशिश है? या ये बीजेपी की उस सियासी चाल का जवाब है जो उसने तीन हिस्सों में बंटे दिल्ली नगर निगम को चुनावों से ऐन पहले एकीकरण के लिए संसद में बिल लाकर किया? बिना पुलिस और ज़मीन पर अधिकार के दिल्ली में चल रही 'आप' की केजरीवाल सरकार और केंद्र में बीजेपी सरकार के बीच प्रतिद्वंदिता और टकराव की नींव तो 2014 के लोकसभा चुनाव में तभी पड़ गई थी, जब नरेंद्र मोदी से भिड़ने के लिए अरविन्द केजरीवाल बनारस में उतरे थे.
मोदी को 5 लाख से ज्यादा तो केजरीवाल को करीब पौने दो लाख वोट पड़े थे. उस हार का बदला दिल्ली में दोबारा सरकार बनाकर और पंजाब में करारी शिकस्त देकर 'आप' ने लिया. क्या संसद में दिल्ली नगर निगम विलय प्रस्ताव और चंडीगढ़ के कर्मचारियों को केंद्र बराबर दर्जा देने के गृह मंत्रालय के आदेश उसी सियासी बदले और पैंतरेबाज़ी के सिलसिले की एक कड़ी है और भगवंत मान का चंडीगढ़ पर राज का हक मांगना इसकी प्रतिक्रिया मात्र है? अगर ये 'आप' सरकार का बीजेपी को अपने कान ऐंठे जाने का सिर्फ जवाब भर नहीं है, तो वो पंजाब की जनता के बीच जाकर सड़क पर उतर कर इसे आंदोलन का रूप देगी और राज्यसभा में उठाएगी, जहां वो अब ताकतवर हो रही है. अगर ऐसा नहीं होता तो ये बस एक नौटंकी या राज्य के हित के मुद्दों से अछूते न रहने वाले दल की इमेज बनाने वाली कवायद ही होगी.
तीन लाख रूपये से ऊपर के क़र्ज़ में डूबी पंजाब सरकार बिना केंद्र सरकार के सहयोग के आपने आर्थिक हालात कैसे ठीक करेगी! ये एक चुनौती अलग से ज़रूर है, लेकिन इसे लेकर न तो भगवंत मान सियासी कारण से बहुत आशान्वित होंगे और न ही ये बात उनके नए टकराव में रोड़ा बनेगी. वजह ये है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने पंजाब की आर्थिक मदद का संजीदा इरादा तब भी नहीं दिखाया था जब सूबे में उनके राजनीतिक गठजोड़ वाले घटक दल अकाली दल की सरकार थी, जिसके मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल थे.
पंजाब का चंडीगढ़ पर हक़ वाला प्रस्ताव विधानसभा में पास कराके इसे पूरे पंजाब की आवाज़ और मांग तो वर्तमान मुख्यमंत्री भगवंत मान ने साबित कर दिया, लेकिन इस पर कितना अमल होगा, इस असलियत से वे भी बखूबी वाकिफ हैं. अगर ये मांग नही भी मानी जाती (जोकि फिलहाल लगभग तय है) तो इसका एक फायदा 'आप ', केजरीवाल और भगवंत मान को ज़रूर मिल सकता है. वो है केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार को विपक्षी दल के सत्ता वाले राज्यों के साथ उसकी भेदभाव पूर्ण नीति की छवि मज़बूत करके बदनाम करने और विक्टिम कार्ड खेलने का. लेकिन ये भी तब हो पाएगा जब इसके लिए आप 360 डिग्री हमले की रणनीति बनाए.