सम्पादकीय

तालिबान में तकरार

Rani Sahu
21 Sep 2021 6:36 PM GMT
तालिबान में तकरार
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अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से जुड़ी जितनी भी आशंकाएं जताई गई थीं

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से जुड़ी जितनी भी आशंकाएं जताई गई थीं, वे सब सही साबित हो रही हैं। खबरों के मुताबिक, अंतरिम सरकार में उप-प्रधानमंत्री मुल्ला अब्दुल गनी बरादर और सरकार में शामिल हक्कानी नेटवर्क के बीच गहरे मतभेद उभर आए हैं। कहा तो यह तक जा रहा कि राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक बैठक के दौरान दोनों गुटों के बीच जमकर मारपीट हुई और गोलियां चलीं, जिनसे कुछ लोग जख्मी हुए। अब पश्चिमी मीडिया की खबरें संकेत दे रही हैं कि हक्कानी गुट ने बरादर को अगवा कर लिया है। सब जानते हैं कि कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका-तालिबान वार्ता में तालिबान का प्रतिनिधित्व अब्दुल गनी बरादर कर रहे थे और दोनों के बीच हुए करार में तालिबान ने एक ऐसी समावेशी सरकार पर हामी भरी थी, जिसमें अफगानिस्तान के सभी जातीय समूहों, तबकों और क्षेत्रों की नुमाइंदगी होगी। पर हक्कानी नेटवर्क अब आईएसआई के इशारे पर पाकिस्तान विरोधी तत्वों को सत्ता में प्रभावी होने से रोकने में जुटा है।

विडंबना यह है कि इस संभावित हालात से अमेरिका व नाटो समेत पूरी दुनिया वाकिफ थी, फिर भी तालिबान और उसके मददगार देशों-संगठनों पर वह कोई दबाव नहीं बना सकी। बहरहाल, जिस समय पश्चिमी मीडिया में बरादर के अगवा होने का अंदेशा जताया जा रहा था, लगभग उसी वक्त तालिबान सरकार के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कुछ जातीय समुदायों के नए मंत्रियों के नामों की घोषणा की है, जिनमें एक भी महिला का नाम शामिल नहीं है। मुजाहिद ने फिर वही पुराना राग दोहरा दिया कि औरतों को सरकार में शामिल करने के मसले पर विचार हो रहा है। छूट गए समूहों की नुमाइंदगी के लिए मंत्रिमंडल के अगले विस्तार में औरतों को शामिल किया जा सकता है। साफ है, तालिबान अपनी पुरातन सोच से डिगने को तैयार नहीं है और अफगानिस्तान की स्थितियां लगातार गहन अराजकता की ओर बढ़ रही हैं। तालिबान सरकार के रक्षा मंत्री मुल्ला याकूब आईएसआई की रोज-रोज की मुदालखत से बेजार हो गए हैं, तो अब्दुल गनी बरादर को समावेशी सरकार के वादे को लागू कराने के लिए अपने ही संगठन के लोगों से लड़ना पड़ रहा है। बरादर अपेक्षाकृत उदार माने जाते हैं और वह अच्छी तरह जानते हैं कि तालिबान हुकूमत की वैश्विक मान्यता इसी बात पर निर्भर है कि वह कितनी तेजी से मुल्क में व्यवस्था कायम करती है और अमेरिका के साथ हुए समझौते की शर्तें लागू करती है। आम अफगानों की जिंदगी दिनोंदिन बदहाल हो रही है और दुनिया के देश चाहकर भी उनकी मदद करने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। यह स्थिति इस पूरे क्षेत्र के लिए बहुत चिंताजनक है। अब जब संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक शुरू हो चुकी है, तब दुनिया को इस मसले पर पूरी गंभीरता से विचार करना चाहिए, ताकि अराजक अफगानिस्तान आतंकियों का फिर से अड्डा न बन सके, बल्कि हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकी संगठनों के पर कतरने के लिए इस्लामाबाद पर शिकंजा कसे जाने की जरूरत है। अगर अफगानिस्तान में तालिबानी समूह आपस में उलझते गए, तो उनके संघर्ष का खामियाजा स्थानीय नागरिकों को तो भुगतना पडे़गा ही, पड़ोसी देशों की भी सिरदर्दी बढ़ती जाएगी, खासकर भारत जैसे देशों को इसके मद्देजनर अतिरिक्त सुरक्षा व्यय करने पड़ेंगे।


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