सम्पादकीय

सिद्धांत पर स्पष्टता जरूरी

Gulabi
1 March 2022 5:41 AM GMT
सिद्धांत पर स्पष्टता जरूरी
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डी-कप्लिंग शब्द उस समय से दुनिया में चर्चा में है, जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध की शुरुआत की
By NI Editorial
हाल तक धारणा थी कि भारत अमेरिकी खेमे के साथ है। लेकिन अब अमेरिकी शासक वर्ग के मुखपत्र प्रकाशनों में भारत को अविश्वसनीय सहयोगी बताया जा रहा है। जाहिर है, चुनौती गंभीर है। कहीं ऐसा ना हो कि भारत कहीं का ना रहे। इसलिए इस पर स्पष्ट सैद्धांतिक समझ सरकार को अविलंब पेश करनी चाहिए।
डी-कप्लिंग शब्द उस समय से दुनिया में चर्चा में है, जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध की शुरुआत की। अंतरराष्ट्रीय स्थिति में इसका मतलब है- दो खेमों का संबंध विच्छेद। जब ये शब्द चर्चा में आया, तब से ये अनुमान लगाया जाता रहा है कि दुनिया दो खेमों में बंट जाने वली है। इन खेमों के बीच संवाद और कारोबार की गुंजाइश लगातार घटने का अंदेशा भी जताया गया है। इस घटनाक्रम का क्या परिणाम होगा, उसको लेकर भी खूब चर्चा हुई है। लेकिन बीच-बीच में ऐसी राय भी जताई है कि आज की दुनिया में ऐसा होना संभव नहीं है। बहरहाल, यूक्रेन पर रूस की सैनिक कार्रवाई के साथ हालात जिस तेजी से बदल हैं, उसमें ये संभावना ठोस रूप लेने लगी है। रूस को वित्तीय और अन्य संबंधों से पश्चिमी देशों ने अलग किया है। लेकिन चीन और कई अन्य देश इस मौके पर रूस की मदद की लिए सामने आते दिख रहे हैँ। इसको लेकर पश्चिमी देशों में नाराजगी है। यहां तक कि कुछ अमेरिकी नेताओं ने यूक्रेन में जो हुआ, उसके लिए चीन को भी दोषी ठहराया है।
बहरहाल, भारत के लिए इस घटनाक्रम से व्यावहारिक चुनौती यह तय करने की पैदा हुई है कि आखिर डी-कप्लिंग की इस प्रक्रिया में वह किस तरफ जाएगा। या फिर वह गुजरे दशकों की तरह गुटनिरपेक्षता की नीति दुनिया में पेश करेगा। इसका अर्थ होगा- दोनों खेमों से बराबर की दूरी और बराबर का संबंध। इस नीति के तहत देश हर मुद्दे पर उसके गुण-दोष या उससे अपने लाभ-हानि की गणना के मुताबिक रुख लेगा। अब ये दीगर प्रश्न है कि क्या आज के माहौल में ऐसा करना संभव है? और क्या ऐसा करना उचित है? यूक्रेन के घटनाक्रम पर भारत के रुख ने इन सवालों को उछाल दिया है। अब अपेक्षा भारत सरकार से यह है कि इस मामले में अपना सिद्धांत या सोच देश को बताए। अभी हाल तक धारणा थी कि भारत अमेरिकी खेमे के साथ जुड़ गया है। लेकिन अब अमेरिकी शासक वर्ग के मुखपत्र प्रकाशनों में भारत को अविश्वसनीय सहयोगी बताया जा रहा है। जाहिर है, चुनौती गंभीर है। कहीं ऐसा ना हो कि भारत कहीं का ना रहे। इसलिए इस बारे में स्पष्ट सैद्धांतिक समझ सरकार को अविलंब पेश करनी चाहिए, ताकि उस पर वह देश को भरोसे में ले सके।
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