- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- तरक्की के दावे और...
x
Vijay Garg: विश्व में महामंदी का वातावरण है और हमारे देश का दावा है कि इस महामंदी के कुप्रभाव से हम निकल गए हैं। बच कर निकले हैं या नहीं, इसका विवेचन तो बाद में होता रहेगा, फिलहाल स्थिति यह है कि देश में खुशहाली के सूचकांक में औसत आदमी के लिए बदलाव नहीं आया। उसके रोजगार की स्थिति में कोई चामत्कारिक परिवर्तन नहीं हुआ। पूंजीगत निवेश की बहुत-सी बातें होती हैं, लेकिन आंकड़े यही बताते हैं कि हमारी कृषि ही नहीं, बल्कि निर्माण और विनिर्माण व्यवस्था भी तरक्की के लिहाज से पिछड़ रही है। जो कमाई हो रही है, वह अधिकतर पर्यटन, सेवा और आतिथ्य क्षेत्र से हो रही है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। हमारी पूंजीगत व्यवस्था में कुछ इस प्रकार परिवर्तन होते कि न केवल कृषि क्षेत्र में हमारा देश दुनिया भर की आपूर्ति श्रृंखला में आगे रहता, बल्कि निर्माण और विनिर्माण क्षेत्र में भी ऐसी तरक्की के प्रतिमान नजर आते कि देश की वह आबादी, जो काम तलाशने की उम्र में अनुकंपा की आस में बैठी रहती है, उसे यथायोग्य नौकरी मिल जाती।
कृत्रिम मेधा, डिजिटल और रोबोटिक्स का जमाना आ गया है। दस वर्ष में हम दुनिया की पांचवें स्थान की आर्थिक शक्ति हो गए हैं। आजादी का शतकीय महोत्सव मनाते हुए हम विश्व की तीसरी आर्थिक शक्ति हो जाने का सपना देख रहे हैं, लेकिन यह सपना तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक कि व्यावसायिक और निवेश व्यवस्था में देश का चेहरा आयात आधारित अर्थव्यवस्था से निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था में नहीं बदल जाता। मगर यहां तो आलम यह है कि निर्माण क्षेत्र में भी हमें कच्चा माल, चीन जैसे देशों से मंगवाना पड़ता है। ऊर्जा क्षेत्र में 85 फीसद कच्चे तेल का आयात किए बिना काम नहीं चलता।
नई खबर यह है कि भारत जहां निर्यात बढ़ाने और आयात घटाने के सपने देख रहा था, वहां ये सपने अधूरे रह गए। इस वर्ष की स्थिति यह रही कि निर्यात में गिरावट से हमारा व्यापार घाटा बढ़ गया है और वहीं हमारी जरूरतें बढ़ जाने से हमारा आयात 27 फीसद तक बढ़ गया है। इस नवंबर में निर्यात 4.85 फीसद घटा। हम कुल निर्यात 32.11 अरब डालर का कर पाए, जबकि पिछले साल इसी अवधि में 33.75 अरब डालर का निर्यात हुआ था। दूसरी ओर आत्मनिर्भरता और 'वोकल फार लोकल' के नारों के बावजूद हमारा आयात बढ़ कर 69.95 अरब डालर हो गया है। देश 'व्यापार घाटा भी बढ़ गया है। यह घाटा बढ़ कर 37.84 अरब डालर पर पहुंच गया है। जब यह घाटा बढ़ेगा, हमारी निर्यात क्षमता पर आयात जरूरतें हावी रहेंगी। हमारी मुद्रा का मूल्य तो घटेगा ही घटेगा।
चालू वित्तवर्ष में डालर के मुकाबले हमारे रुपए का विनिमय मूल्य निरंतर घटता चला गया है। इस समय यह मूल्य 85 रुपए प्रति डालर के पार है। इसे आप सार्वकालिक निचला स्तर कह सकते हैं। इसके साथ ही अपनी विनिमय दर को स्थिरता देने के लिए देश के स्वर्ण भंडारों का इस्तेमाल भी किया जाता है। कुछ भुगतान सोने में कर दिए जाते हैं, जिसके कारण हमारे स्वर्ण भंडार में भी भारी कमी हुई है, जबकि इनके यथेष्ट होने का भरोसा मिलता रहा है। चालू वित्तवर्ष में अप्रैल-नवंबर में निर्यात और आयात का अंतर दिखता है। कुल निर्यात अगर 2.17 फीसद बढ़ा है, तो आयात बढ़ कर 8.35 फीसद तक पहुंच गया है। ऐसे देश में, जहां रुपए का मूल्य निरंतर डालर के सामने गिरता जा रहा हो, वहां निवेशकों को अपने देश में निवेश करते रहने का आकर्षण बनाए रखना कठिन हो जाता है। पिछले कुछ महीनों में अमेरिका द्वारा फेडरल दरों में परिवर्तन की संभावना से विदेशी निवेशकों ने भारत से पलायन शुरू कर दिया। घरेलू निवेशकों ने भी थोड़ा तेवर बदला। अब वह भी नया निवेश उन विदेशी स्थानों में कर रहे हैं, जहां उन्हें लाभ की अधिक गुंजाइश लगती है।
अब स्थिति यह है कि हमारे उत्पादन की लागत में वह परिवर्तन नहीं आ पाया, जो अमेरिका और चीन ने हासिल कर लिया। अमेरिका हो या यूरोपीय संघ या फिर चीन, ये सभी अपने देश में उत्पादन की कुशलता बढ़ाने के लिए शोध और अनुसंधान पर बहुत खर्च करते हैं। देश की तकनीक को प्रगति पथ पर अग्रसर रखते हैं। हमारे यहां जय जवान, जय किसान के साथ जय अनुसंधान का नारा तो लगा दिया जाता है, लेकिन यहां अनुसंधान पर खर्च जीडीपी का मात्र 0.6 फीसद है। इसके मुकाबले चीन को ले लीजिए, जिसे व्यावसायिक प्रतियोगिता में हम छका देने के सपने देखते रहते हैं। उसकी जीडीपी हमसे छह गुना ज्यादा है। वह इसका तीन फीसद शोध और अनुसंधान में लगा देता है। वह तकनीकी ज्ञान को लगातार बढ़ा रहा है और हमारे यहां जय अनुसंधान की प्रतिबद्धता के बावजूद अनुसंधान पर 0.6 फीसद का खर्च हैरान नहीं करता।
बार-बार देश में शिक्षा क्रांति की घोषणा के बावजूद हम शिक्षा विकास के लिए योजना या नीति आयोग द्वारा सुझाई गई छह फीसद निवेश दर तक पहुंच नहीं पाते और उससे कम ही शिक्षा विकास पर खर्च करते हैं। उधर, उत्पादन की गति कुछ इस तरह से बढ़ती है कि हमें अपनी तरक्की स्पूतनिक के मुकाबले बैलगाड़ी-सी लगने लगती है। जरूरत यह है कि देश में अनुसंधान और शोध को प्राथमिकता दी जाए। सभी चीजें बाहर से आयात नहीं की जा सकतीं और विशेष रूप से जबकि हम अपने देश को एक आयात आधारित व्यवस्था नहीं, बल्कि निर्यात आधारित व्यवस्था बना देना चाहते हैं, लेकिन हमारा माल तो तभी बाहर बिकेगा, जब तकनीकी रूप से यह दूसरे देशों से उत्तम नहीं, तो कम से कम उनके समान हो।
गिरती हुई विनिमय दर को कैसे रोका जाए? दरअसल, इसके लिए जरूरी है कि हमारा व्यापार घाटा कम हो और हमारा निर्यात बढ़े। हमारे निवेशकों ने हर तरह के निर्माण की तरफ हाथ बढ़ाया, पर हम निर्यात क्षेत्र में अपनी मौलिक छाप नहीं छोड़ पा रहे। अपनी विशेष संस्कृति की पुरातन वस्तुओं का स्मरण हम बहुत करते हैं और आजकल उनकी तलाश भी खूब हो रही है, लेकिन अगर दुनिया भर को इन वस्तुओं के प्रति आकर्षित करके हम उनकी मांग पर अपना सर्वाधिकार कर लेते, तो निश्चय ही देश को निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनते देर न लगती। लेकिन यहां आलम यह है कि बासमती चावल का सर्वाधिकार होते हुए भी हम उसके निर्यात को पूरी तरह प्रोत्साहित नहीं कर सके और पाकिस्तान ने बासमती जैसा चावल उपजा कर विदेशी मंडियों में कब्जा करना शुरू कर दिया। कृषि निर्यात को प्रोत्साहन देने की जरूरत है, लेकिन यह तभी होगा जब हम अपने देश को एक उद्यम से पैदा किए हुए अनाज से भर सकेंगे, न कि सस्ते और रियायती अनाज की अनुकंपा से, जिसके कारण कुपोषण अधिक बढ़ता है और बीमारियों से लड़ने की हमारी क्षमता भी कम होती है। एक बीमार होता देश भला स्वस्थ, खुशहाल और संपन्न देशों की निर्यात मंडियों में मुकाबला करेगा तो कैसे ?
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
Tagsतरक्कीअधूरे सपनेजनता से रिश्ता न्यूज़जनता से रिश्ताआज की ताजा न्यूज़हिंन्दी न्यूज़भारत न्यूज़खबरों का सिलसिलाआज की ब्रेंकिग न्यूज़आज की बड़ी खबरमिड डे अख़बारJanta Se Rishta NewsJanta Se RishtaToday's Latest NewsHindi NewsIndia NewsKhabron Ka SilsilaToday's Breaking NewsToday's Big NewsMid Day Newspaperजनताjantasamachar newssamacharहिंन्दी समाचार
Gulabi Jagat
Next Story