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शोध कार्य भी हो रहे होते। परिवर्तन की सोच बन रही होती।
प्रधानमंत्री की विकास प्राथमिकताओं में नगरीय विकास का विशेष महत्व है। नगर विकास के इंजन हैं। आमतौर पर नौकरशाहों से अपेक्षा नहीं होती कि वे नगर-प्रबंधन जैसे विषय का पाठ लिखेंगे, लेकिन यह कार्य हमलोगों ने अपने कानपुर नगर निगम के कार्यालय में किया था। दरअसल नगर-प्रबंधन को विषय के रूप में कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। इसे हमेशा मात्र सफाईकर्मियों का विभाग माना गया है, जबकि नगर निगम एक स्थानीय प्रशासनिक इकाई है।
कराधान, संपत्ति प्रबंधन, आय-व्यय, लेखा, ऑडिट, इंजीनियरिंग, ड्रेनेज, सॉलिड वेस्ट, लिक्विड वेस्ट, जल प्रबंधन, सड़क प्रकाश, सफाई, कर्मचारियों का प्रशासन, परिवहन, स्वास्थ्य, पर्यावरण, सदन, मेयर, विधिक व्यवस्था, न्यायिक प्रबंधन आदि क्या नहीं है नगर निगम के दायित्व में! इतने विस्तृत कलेवर का तो कोई और विषय ही नहीं है। नगर आयुक्तों को सबसे बड़ी समस्या नगर निगमों के एडहॉक, अव्यवस्थित प्रशासन व कॉडर विहीन अर्धशिक्षित कर्मचारियों/अधिकारियों के कारण होती है।
न दायित्वबोध, न अपने कार्य में गर्व का एहसास, बस ऐसे चलते जाओ। जब हमने पाया कि पूरे देश में कहीं भी नगर-प्रबंधन का कोई पाठ्यक्रम नहीं है, तो घोर आश्चर्य हुआ। नगर विकास एक लावारिस-सा क्षेत्र है, जिसके बारे में कोई व्यवस्थित वैज्ञानिक-प्रशासनिक दृष्टि ही विकसित नहीं हुई। एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज, हैदराबाद ने भी हाथ खड़े कर दिए। हमने तीन माह में तीन वर्षीय मैनेजमेंट व एक वर्षीय पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स का पाठ्यक्रम तैयार कर कानपुर विश्वविद्यालय के सम्मुख स्वीकृति के लिए प्रस्तुत कर दिया।
तत्कालीन राज्यपाल मा. जोशी जी के अनुमोदन से देश में पहली बार नगर-प्रबंधन को किसी विश्वविद्यालय ने पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकृति दी। यह ऐसा कार्य था, जिसकी देश भर के शैक्षिक जगत में चर्चा होनी चाहिए थी। हमने कानपुर विश्वविद्यालय से 100 सीटों की स्वीकृति लेकर अपने एएनडी कॉलेज में पठन-पाठन की व्यवस्था करनी प्रारंभ की। कानपुर में नगर विकास संस्थान के लिए सात एकड़ जमीन नगर निगम में चिह्नित कर ली गई। राज्य योजना से पांच करोड़ रुपये की धनराशि भी परिसर विकास के लिए स्वीकृत हो गई। लेकिन इसी बीच राज्य का चुनाव हुआ और सरकार बदल गई।
नगर विकास की यह महत्वाकांक्षी पहल ठप हो गई। कहा गया कि नगर निगम का काम सफाई है, वह कीजिए। यह फालतू काम है। मैं स्थानांतरित होकर समाज कल्याण विभाग में चला गया। फिर तो सब दाखिल दफ्तर हो गया। सरकार के स्तर से निर्देश यह जारी होना था कि नगर विकास की सेवाओं में नगर-प्रबंधन की डिग्री/डिप्लोमा को प्राथमिकता दी जाएगी। फिर इसकी मांग बढ़ती और यह विषय स्वीकार्य व स्थापित हो जाता और दूसरे विश्वविद्यालय भी इसे अपने यहां लागू करते।
उन्हीं दिनों दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी (डीटीयू) के वीसी रामबाबू साहब ने संदेश दिया कि इस विषय में चर्चा करनी है। मैं दिल्ली गया। रामबाबू जी तो पाठ्यक्रम देखकर बहुत उत्साहित हुए और कहा भी कि मैं यह कोर्स चलाऊंगा। इसी दौरान नगर-प्रबंधन पर मेरा एक आलेख दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक बिजनेस मैगजीन इनक्लूजन में छपा। इंडिया हैबिटेट सेंटर के एक सेमिनार में अपनी बात रखने का अवसर मिला। लेकिन डीटीयू वीसी का एक्सटेंशन नहीं हो पाया और वह सेवानिवृत्त हो गए। कुछ माह पहले लखनऊ में अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी के नए वीसी प्रदीप कुमार मिश्र से चर्चा हुई।
कानपुर विश्वविद्यालय से स्वीकृत नगर-प्रबंधन का वह पाठ्यक्रम मैं उन्हें इस उम्मीद में दे आया कि यदि वह पाठ्यक्रम यहां संचालित हो जाए, तो कम से कम हमारा परिश्रम सफलता के एक सोपान तक पहुंचेगा। एक विश्वविद्यालय में पठन-पाठन प्रारंभ हो जाए, तो फिर यह काफिला आगे बढ़ेगा। यह विषय यदि 2012 से पढ़ाया जाने लगा होता, बैच निकल रहे होते, तो नगर विकास, नगरीकरण के प्रति एक विवेकपूर्ण दृष्टि विकसित होने लगी होती। इसके ग्रेजुएट हमारे नगर निगमों, नगर पालिकाओं में आ रहे होते, माहौल बदल रहा होता। शोध कार्य भी हो रहे होते। परिवर्तन की सोच बन रही होती।
सोर्स: अमर उजाला
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