- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- लॉकडाउन में क्रिसमस
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। सोचें, ब्रिटेन क्रिसमस के दिन खुला हुआ नहीं होगा। ऐसे ही जर्मनी भी दस जनवरी तक लॉकडाउन में है। यूरोप के तमाम देशों में, अमेरिका में क्रिसमस और नए साल के स्वागत में वह कोई हुजूम नहीं होगा, वह उत्सव नहीं होगा जो इन अमीर, वैभवशाली ईसाई देशों की शान है, परंपरा है, जीने का अंदाज है। हां, क्रिसमस और नए साल का पखवाड़ा वर्ष का वह वक्त होता है जब दुनिया जश्न, उत्सव, त्योहार खरीदारी, सैर-सपाटे में सर्वाधिक मगन रहती है। फुरसत-आनंद सुख में तरबतर होती है। मतलब दुनिया के ये पंद्रह दिन हमारी दीपावली-दुर्गापूजा से असंख्य गुना अधिक उमंग-उत्साह-रोशनी व खुशी से पृथ्वी को लकदक बनाए होते हैं।
आखिर कुछ भी हो ईसाई समाज-सभ्यता जीवन जीने की संपन्नता-समृद्धि में शेष धर्मों से कई गुना अधिक वैभवता लिए हुए है तो बड़े लोगों के बड़े दिन भी ठाठ-बाट से ही मनाए जाएंगे। कोई अनुमान नही है लेकिन क्रिसमस-नववर्ष के बीस दिनों के आयोजनों, खर्च का यदि हिसाब लगे तो पता पड़ेगा कि साल के 365 दिनों में इन बीस दिनों का वैश्विक खर्चा बीस-तीस प्रतिशत तो बैठेगा ही। इसलिए कल्पना ही दहला देने वाली है कि ब्रिटेन, जर्मनी सहित कई देश क्रिसमस, नए साल के दिन तालाबंद हैं। चर्च की घंटियां बजेंगी लेकिन लोग चर्च में नहीं होंगे। घर में तालाबंद हो कर क्रिसमस मनाएंगे। तभी सोचें देश, समाज, आर्थिकी पर इस क्रिसमस के वीराने का क्या असर होगा?