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चीनी जासूसी जहाज युआन वांग-5 (Chinese Spy Ship) ने आखिरकार श्रीलंकाई बंदरगाह हंबनटोटा (Hambantota) पर लंगर डाल ही लिया
सोर्स- Jagran
हर्ष वी. पंत। चीनी जासूसी जहाज युआन वांग-5 (Chinese Spy Ship) ने आखिरकार श्रीलंकाई बंदरगाह हंबनटोटा (Hambantota) पर लंगर डाल ही लिया। इससे पहले भारत ने इस जहाज को लेकर श्रीलंका के समक्ष अपनी आपत्ति जताई थी। उसका असर भी हुआ। श्रीलंका ने चीन से कहा कि वह इस जहाज के आगमन को टाल दे। पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार यह जहाज 11 अगस्त को हंबनटोटा आना था। श्रीलंका सरकार के बदले रुख से सकपकाए चीन ने कोलंबो पर दबाव डाला।
चूंकि श्रीलंका चीन के भारी कर्ज के बोझ तले दबा है और उसने हंबनटोटा बंदरगाह भी चीन को 99 साल के लिए लीज पर दे दिया है तो चीनी पोत को रोकने के मामले में श्रीलंका एक सीमा से आगे नहीं जा सकता था। उसने इस दबाव के आगे समर्पण करते हुए 13 अगस्त को चीनी जहाज को आगमन की अनुमति दी। अब यह जहाज 22 अगस्त तक हंबनटोटा बंदरगाह पर रहेगा। चीन का दावा है कि यह जहाज शांति और मैत्री के उद्देश्य से भेजा गया है, लेकिन वास्तविकता इसके उलट है। युआन वांग-5 अपनी जासूसी क्षमताओं के लिए जाना जाता है। यही कारण है कि इसके लंगर डालने पर भारत की त्योरियां चढ़ी हुई हैं।
भारत की चिंताएं अकारण नहीं हैं। युआन वांग शृंखला के जहाज निगरानी और जासूसी के लिए ही बने होते हैं। चीनी भाषा में युआन वांग का अर्थ ही 'दूर तक देखने वाला' होता है। इसकी कमान भी चीनी नौसेना के हाथ में होती है। स्वाभाविक है कि जिस जहाज की कमान ही एक आक्रामक सेना के हाथ में हो तो उसका मकसद शांति और मैत्री कैसे हो सकता है? जैसा कि नाम से ही जाहिर है कि यह जासूसी जहाज खतरनाक क्षमताओं से लैस है। इसमें अत्याधुनिक रडार, सेंसर आदि उपकरण लगे हैं, जो मिसाइलों और उपग्रहों को ट्रैक कर सकते हैं। इसका मिसाइल रेंज इंस्ट्रुमेंशन एंटीना 750 किलोमीटर दूर तक मिसाइल या राकेट को ट्रैक कर सकता है।
यह 16 अगस्त से जिस हंबनटोटा में खड़ा है, वहां से कन्याकुमारी की दूरी करीब 450 किमी ही है। हमारी एकीकृत मिसाइल परीक्षण रेंज भी ओडिशा के चांदीपुर में है और अपनी क्षमताओं से यह वहां तक नजर रखने में सक्षम है। इसलिए भारत की आपत्तियां उचित हैं। हंबनटोटा की भौगोलिक स्थिति भी बहुत रणनीतिक है। यह हिंद महासागर में एक महत्वपूर्ण जगह पर स्थित है।
ऐसे में चीनी जासूसी जहाज यहां नए संघर्ष और टकराव के बीज बो सकता है। करीब सवा दो सौ मीटर लंबे इस जहाज पर लगभग दो हजार लोगों की मौजूदगी भी संदेह उत्पन्न करती है। आखिर कथित शोध-अनुसंधान के लिए चीनी जहाज को इतनी दूर क्यों आना पड़ा? चीनी जासूसी जहाज के आने का समय और उसके पीछे की चीनी मंशा को समझने का प्रयास करेंगे तो उसमें एक खास रुझान देखने को मिलेगा।
पिछले कुछ समय से भारत और श्रीलंका के संबंधों में नाटकीय रूप से सुधार हुआ है। नाटकीय रूप से इसलिए कि वैसे तो भारत-श्रीलंका स्वाभाविक साझेदार और पारंपरिक मित्र रहे हैं, लेकिन एक समय चीन से मिल रहे भारी कर्ज और अन्यान्य फायदों के चलते कोलंबो-नई दिल्ली के बीच गर्मजोशी घट गई थी। फिर श्रीलंका में अप्रत्याशित आर्थिक संकट आया, जिसके पीछे चीन का भारी एवं अव्यावहारिक कर्ज भी काफी हद तक जिम्मेदार था।
संकट की स्थिति में चीन ने श्रीलंका की मदद तो दूर, उलटे कर्ज की शर्तों में रियायत देने तक से इन्कार कर दिया। इसी दौरान भारत ने न केवल वित्तीय, बल्कि खाद्यान्न से लेकर ईंधन और दवाओं आदि आवश्यक वस्तुओं की उदारता से श्रीलंका को आपूर्ति की। इसने श्रीलंका में भारत के प्रति सद्भावना बढ़ाई, जबकि श्रीलंका में एक बड़ा वर्ग उस संकट के लिए चीन को कसूरवार मानता है। इन बदली हुई परिस्थितियों में ही श्रीलंका सरकार चीनी जहाज को आने से मना कर रही थी। यह चीन को नागवार गुजरा।
हाल में ताइवान को लेकर अमेरिका से हुई नोकझोंक के चलते चीन की पहले ही छीछालेदर हो चुकी है। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे को लेकर उसकी धमकियां गीदड़-भभकियां ही साबित हुईं। ऐसे में वह श्रीलंका और भारत की बढ़ती गलबहियों और उससे अपनी घटती धमक को लेकर असहज होने से बचना चाहता था। चीन में जैसी घरेलू परिस्थितियां एवं असंतोष उपज रहा है, उसे देखते हुए शी चिनफिंग के लिए आवश्यक हो गया था कि वह कुछ महीनों में होने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन से पहले अपनी आक्रामक छवि को नए तेवर देकर अपनी मजबूत पकड़ दिखाएं। वैसे चीन ने ऐसा पहली बार नहीं किया है।
वर्ष 2017 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के श्रीलंका दौरे के समय भी उसने वहां अपनी परमाणु पनडुब्बियों को भेजने की योजना बनाकर अपने प्रभाव का संकेत देने का प्रयास किया था। श्रीलंका सरकार के अनुरोध पर बाद में चीन ने ऐसा नहीं किया, लेकिन उसके इरादे तो जाहिर हो गए थे। स्पष्ट है कि हंबनटोटा की जटिल स्थिति को देखते हुए वहां चीन की काट को लेकर भारत अपने स्तर पर हरसंभव प्रयास करे। याद रहे कि चीन अब हिंद महासागर में अपना दबदबा बढ़ाना चाहता है, क्योंकि यही भविष्य में आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बनने वाला है।
चीनी जहाज को श्रीलंकाई तट पर जगह देने का मुद्दा इस द्वीपीय देश की आंतरिक राजनीति में एक बड़ा मुद्दा बन गया है। श्रीलंका को अपनी तात्कालिक आवश्यकता के लिए दुनिया भर से वित्तीय संसाधन चाहिए। वह चीन से भी चार अरब डालर मदद की उम्मीद लगा रहा है। फिर हंबनटोटा की चीन को मिली लीज का मामला भी है। ऐसे में चीनी जहाज को आने से रोकने के मामले में श्रीलंका की दुविधा समझी जा सकती है, फिर भी उसे समझना होगा कि वह भारत की आपत्तियों को नजरअंदाज नहीं कर सकता। चीन के उलट भारत और श्रीलंका दोनों ही देश लोकतंत्र हैं।
संकट के समय भारत ने श्रीलंका की हरसंभव मदद की है, जिसका भारतीय जनता द्वारा कोई विरोध नहीं किया गया। यदि श्रीलंका भविष्य में भी भारत की आपत्तियों को इसी प्रकार अनदेखा करेगा तो भारत सरकार के लिए उसकी मदद को लेकर जनमत को साधना मुश्किल हो जाएगा। श्रीलंका के चीन की ओर झुकाव के बावजूद अगर भारत सरकार उसे मदद पहुंचाना जारी रखेगी तो यह घरेलू स्तर पर उसकी राजनीतिक मुश्किलें बढ़ा सकता है, क्योंकि तब लोग ऐसी मदद पर सवाल उठाएंगे। श्रीलंका को समझना होगा कि यदि वह संतुलन को नहीं साध पाया तो उसका सबसे बड़ा खामियाजा वही भुगतेगा।
Rani Sahu
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