सम्पादकीय

चीन की चाल: कश्मीर में दखल ठीक, ताइवान में खराब

Neha Dani
22 Aug 2022 2:38 AM GMT
चीन की चाल: कश्मीर में दखल ठीक, ताइवान में खराब
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इसके विपरीत भारत की विविधता कश्मीर और पूर्वोत्तर से लेकर अंदरूनी इलाकों तक मौजूद है।

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाना उचित था या नहीं, लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत में इस पर आगे भी बहस होती रहेगी। लेकिन किसी देश को इस मामले में जाब्ते से बोलने का अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 370 की समाप्ति की तीसरी वर्षगांठ पर चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने तीन साल पहले की टिप्पणी दोहराई कि यथास्थिति में एकतरफा परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रवक्ता ने सलाह दी कि भारत और पाकिस्तान को शांतिपूर्ण ढंग से कश्मीर मसले का हल निकालना चाहिए। चीन ने पाकिस्तान की इस आपत्ति का भी दृढ़ता से समर्थन किया कि अगले साल जम्मू-कश्मीर में जी-20 की बैठक के प्रस्ताव को मंजूर नहीं किया जा सकता। उग्र राष्ट्रवादी विचार वाले अंग्रेजी दैनिक ग्लोबल टाइम्स ने लिखा कि भारत जम्मू-कश्मीर पर अपने नियंत्रण को ही नहीं, प्रभुसत्ता को स्वीकार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर दबाव डाल रहा है।




गौरतलब है कि यह उस चीन का व्यवहार है, जिसने वर्ष 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर ( पीओके ) के सामरिक महत्व के पांच हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक भूभाग को पाकिस्तान की फौजी सरकार से हथिया लिया था। चीन पीओके में कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए कई सड़कें बनाने के साथ ही झेलम पर जल विद्युत परियोजना का निर्माण भी कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय विस्तार से प्रेरित चीन की बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई ) को भारत ने इसीलिए ठुकरा दिया है कि वह वाया पीओके निकाली जा रही है। ताइवान संकट बढ़ने पर हू-ब-हू चीन की शब्दावली में भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने पलट जवाब दिया, 'अन्य देशों की तरह भारत भी हाल के घटनाक्रम से चिंतित है। हमारा अनुरोध है कि संयम बरतते हुए, यथास्थिति को बदलने के लिए एकतरफा कार्रवाई न की जाए, क्षेत्र में तनाव कम करते हुए शांति और स्थिरता के लिए प्रयास किए जाएं।' यह वक्तव्य कौशलपूर्ण राजनय का परिचायक था। भारत ने 'एक चीन' नीति में बदलाव न करते हुए भी एक परिवर्तनपूर्ण निरंतरता को नए संदर्भ में रेखांकित कर दिया। अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने, जम्मू-कश्मीर के निवासियों को अलग से वीजा नत्थी करने और सिक्किम पर नीति बदलने के बाद वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह की पिछली सरकार ने 'एक चीन' नीति पर खामोश रहने का फैसला कर लिया था। चीन को मिर्ची लगनी स्वाभाविक थी।


ध्यान दें, जो बात बीजिंग में सरकारी प्रवक्ता कह सकते थे, उसे नई दिल्ली में राजदूत सुन वीदांग से कहलवाया गया। सुन ने कहा, 'हम आशा करते हैं कि भारत एक चीन नीति (अर्थात ताइवान चीन का अटूट हिस्सा है) को सार्वजनिक रूप से दोहराएगा। भारत-चीन संबंधों का राजनीतिक आधार एक चीन नीति है।' इसका भाष्य यह हुआ : जम्मू-कश्मीर, सिक्किम और अरुणाचल पर चीन की नीति जो भी हो, एक चीन नीति से हटने की भारत को इजाजत नहीं दी जा सकती। भारत ने पुरानी नीति की पुनर्पुष्टि न की, तो संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर तनाव बढ़ने के लिए भी वही जिम्मेदार होगा। इस चेतावनी में चीन का वर्चस्ववाद स्पष्ट देखा जा सकता है। पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले ने कुछ समय पहले प्रकाशित अपनी पुस्तक द लांग गेम में चीन के इस रवैये पर तेज रोशनी डाली है।

नई दिल्ली में बयान क्यों दिलवाया गया, इसकी बारीकी को समझने के लिए गोखले की इस टिप्पणी पर गौर करें, 'चीन के राजनयिक हमारी तरह नहीं होते। ऊंचे स्तर के सभी राजनयिक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होते हैं और उनकी निष्ठा राज्य के बजाय पार्टी के प्रति होती है। लोकतांत्रिक देशों में राजनयिक सरकार के एजेंट होते हैं, चीन में पार्टी के। एक महत्वपूर्ण अंतर और भी है। चीन के राजनयिकों में वैचारिकता होती है।' इसका अर्थ हुआ कि सुन ने पार्टी की सुविचारित और दूरगामी नीति व्यक्त की; एलएसी पर तनाव दूर करने और धीरे-धीरे उसके विसैन्यीकरण पर ठोस वार्ता लंबे समय के लिए अटक गई। याद रहे कि वर्ष 1962 में भारत पर हमले का फैसला भी माओ त्से तुंग की अध्यक्षता में हुई पोलित ब्यूरो की बैठक में लिया गया था।

वार्ता हुई भी, तो चीन का रुख क्या होगा? गोखले के अनुसार, पूर्व विदेश सचिव और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन अपनी अप्रकाशित किताब में लिखते हैं, 'साम्राज्यवादी दौर से चीन की परंपरा रही है कि वह अपने को ऊंचा रखकर वार्ता शुरू करता है; दो समान लोगों के बीच वार्ता नहीं हो सकती। उससे बातचीत में शक्ति संतुलन और दूसरे पक्ष पर लाभदायक स्थिति प्रतिबिंबित होती है।' भविष्य में जब कभी वार्ता होगी, चीन के और कठोर रवैये के लिए तैयार रहना चाहिए। अनुमान लगाया जा सकता है कि करीब दो महीने बाद होने वाली पार्टी कांग्रेस के बाद चीन और आक्रामक होगा। तब उसका मुकाबला भारत किस तरह करेगा? चीन की कमजोरी और भारत की ताकत का विश्लेषण करते हुए पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन हाल में प्रकाशित अपनी किताब हाउ चाइना सीज इंडिया ऐंड द वर्ल्ड में लिखते हैं, 'अधिनायकवादी चीन की तरह भारत की
चिंताएं वे नहीं हैं, जो उसकी हैं। भिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक पहचानों को चीनी राज्य खतरे के रूप में देखता है, जबकि भारत बहुलवादी लोकतंत्र का अनुरक्षण करता रहा है। चीन की चुनौती का सामना करने के लिए भारत को अंतर्निहित सांस्कृतिक संपदाओं को सुदृढ़ करना होगा; संकीर्ण राष्ट्रवाद के बढ़ने, जान-बूझकर सांप्रदायिक विग्रह पैदा करने, अनेक भाषाओं, धर्मों और सांस्कृतिक परंपराओं वाले विविधतापूर्ण देश पर एकरंगीय फ्रेम लगाने से भारत को विशिष्ट बनाने वाली संपदाओं का अवमूल्यन होगा।'

आंतरिक शांति की दृष्टि से श्याम सरन की चेतावनी को इस संदर्भ में देखना चाहिए कि चीन में 90 फीसदी से अधिक हान कौम है और अपनी पहचान बचाने को संघर्षरत उईगुर मुसलमान और बौद्ध तिब्बती सीमा पर रहते हैं। इसके विपरीत भारत की विविधता कश्मीर और पूर्वोत्तर से लेकर अंदरूनी इलाकों तक मौजूद है।

सोर्स: अमर उजाला

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