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- सीमा पर चीन की बगुला...
आदित्य चोपड़ा: चीन के मामले में सबसे पहले यह साफ होना चाहिए कि इसकी मानसिकता सैनिक कार्रवाइयों से किसी भी विवाद को हल करने की रही है अतः इसके साथ कूटनीतिक वार्ता एक हद तक ही संभव है। भारत-चीन के सम्बन्धों का पिछले 74 साल का इतिहास गवाह है कि यह देश अपनी सैनिक शक्ति के बूते पर दोनों देशों के बीच की सीमा रेखा के विवाद को हल करना चाहता है परन्तु पिछले एक दशक में चीन अब विश्व की आर्थिक शक्ति भी बन चुका है जिसकी वजह से पड़ोसी देशों के साथ उसके सम्बन्धों पर दोहरा असर पड़ रहा है। चीन के सम्बन्ध में एक तथ्य और भी जगजाहिर है कि यह विस्तारवादी देश है और अपनी स्वतन्त्रता प्राप्ति (1949 में) के बाद से ही अपनी सीमाओं से लगती दूसरे देशों की भूमि हड़पता रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तिब्बत है जिसे इसने पूरा निगल लिया है। अब इसकी निगाहें इसी तिब्बत से लगती भारतीय सीमाओं पर है जिन्हें वह हड़पने की गरज से पूरी नियन्त्रण रेखा को ही बदल देना चाहता है। इस सन्दर्भ में इस देश ने हाल ही में एक एेसा कानून बनाया है जिसके तहत सीमावर्ती इलाकों में वह स्थानीय क्षेत्रवासियों के कथित शोषण के नाम पर अपनी विस्तारवादी सदाशयता को लागू करके आपसी सद्भाव के नाम पर अपने में मिला सके और सीमावर्ती देश को इस उलझावे में रख कर बातचीत से हल निकालने का बहाना खोज सके। भारत ने इसका विरोध करते हुए स्पष्ट किया है कि एेसा कानून न केवल इकतरफा है बल्कि दोनों देशों के बीच अभी तक हुए विभिन्न सीमा प्रबन्धन समझौतों का उल्लंघन करने वाला भी है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच अभी तक पांच सीमा समझौते हो चुके हैं जिनमें नियन्त्रण रेखा के दोनों ओर शान्ति व सद्भाव बनाये रखने के विभिन्न प्रावधान हैं। इसके साथ ही दोनों देशों के बीच सीमा विवाद हल करने के लिए एक उच्च स्तरीय कार्यदल भी गठित है जिसमें भारत का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार करते हैं और चीन की तरफ से उनके समकक्ष मन्त्री ही नेतृत्व संभालते हैं। इस कार्यदल की एक दर्जन से अधिक बैठकें हो चुकी हैं मगर अभी तक कोई हल नहीं निकला है। इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि चीन उस मैकमोहन रेखा को नहीं मानता है जो 1914 में भारत, चीन व तिब्बत की सीमाओं को सुनिश्चित करने की गरज से खींची गई थी। 1947 में भारत के आजाद होने के समय यही रेखा इन तीनों देशों की सीमाएं सुनिश्चित करती थी परन्तु 1949 में स्वतन्त्र होने के बाद चीन ने अपने पड़ोसी देश तिब्बत को हड़पने का सैनिक अभियान शुरू किया और 1958 तक इसे पूरा कर लिया। इसके बाद 1962 में इसने भारत पर आक्रमण करके अपनी विस्तारवादी नीयत को आगे बढ़ाया जिसका अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारी विरोध होने की वजह से इसकी सेनाएं पीछे हटी परन्तु भारत की 35 हजार वर्ग किमी भूमि इसके कब्जे में चली गई। इसके बाद 1963 में इसने पाकिस्तान के साथ एक नया सीमा समझौता किया और पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले कश्मीर की पांच हजार वर्ग कि.मी. से ज्यादा जमीन इसे तोहफे में दे दी। यह भूमि रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह काराकोरम दर्रे के बिल्कुल निकट है। चीन ने इस जमीन का इस्तेमाल दुनिया की सबसे ऊंची सड़क के निर्माण के रूप में किया और पाकिस्तान के साथ इसे जोड़ कर भारत के लिए नया खतरा पैदा किया। इसी काराकोरम दर्रे के निकट भारत का दौलतबेग ओल्डी सैनिक अड्डा है जिसके करीब देपसांग का पठारी मैदानी इलाका है जिसमें चीन 14 कि.मी. अन्दर तक घुस आया है। इस इलाके में उसने भारतीय फौजों को अपनी जगह से चौकसी करने से रोका हुआ है और दौलत बेग ओल्डी तक आने वाली भारतीय सड़क के मार्ग में घुसपैठ करके जगह-जगह अवरोध पैदा कर दिये हैं और अपने सैनिक अड्डे व जमावड़े बना लिये हैं। इतना ही नहीं चीन इससे भी आगे भारत के अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित गांवों तक के इलाके में घुस आया है और तिब्बत से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक सीमा रेखा या नियन्त्रण रेखा को बदल देना चाहता है। निश्चित रूप से भारत के लिए यह गंभीतर चिन्ता का विषय है क्योंकि तिब्बत से लगती जो भी भारतीय भूमि है उस पर चीन की लालची निगाहें हैं और वह स्थानीय लोगों के कथित शोषण के नाम पर इसे हड़पना चाहता है। चीन एेसा करके उस सीमा वार्ता के नियमों को भी तोड़ रहा है जो दोनों देशों के बीच डा. मनमोहन सिंह की सरकार के समय असल कार्यरूप में आयी थी। संपादकीय :पदोन्नति में आरक्षण का मुद्दाक्रिकेट, कश्मीर और पाकिस्तानजोखिम भरा है स्कूल खोलनाआइये मिलाएं क्लब की Life Lines सेपटाखे नहीं दीये जलाओशाह की सफल कश्मीर यात्राराष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की सदारत में होने वाले इस वार्ता तन्त्र का एक मोटा सिद्धान्त यह तय किया गया था कि सीमा पर स्थित जिस इलाके में जिस देश का शासन तन्त्र काम कर रहा है वह उसी का समझा जाये। इस फार्मूले के तहत सीमा स्थित तिब्बत के समीपवर्ती इलाकों से लेकर अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती सभी इलाके भारतीय शासनतन्त्र के आते हैं मगर चीन की टेढी निगाहें एेसे सभी इलाकों पर हैं। भारत ने एक बार फिर यह कह कर साफ कर दिया है कि 1963 में उसे सौगात में दिया गया पाक अधिकृत कश्मीर का पांच हजार वर्ग कि.मी. इलाका उसका नहीं है क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा है। भारत इस समझौते को पूरी तरह अवैध मानता है। मगर चीन अब तमाम नियन्त्रण रेखा को ही बदलने की साजिश रच रहा है जिसे कभी कामयाब नहीं होने देना चाहिए। उसकी बगुला भक्ति का स्वांग तोड़े जाने की सख्त जरूरत है जिसे भारत ने अपना विरोध प्रकट करके छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की है।