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हालिया नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में चिंतित करने वाले ऐसे कई तथ्य हैं, जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।
आधिकारिक रिपोर्ट और सर्वेक्षण महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों के बारे में बताते हैं, इसके बावजूद वे हमेशा अखबारों की सुर्खियां नहीं बनते, न ही टीवी के प्राइम टाइम पर जगह पाते हैं। हाल ही में जारी नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस-5) इसका प्रमाण है। यह एक ऐसे भारत की तस्वीर पेश करता है, जहां प्रगति के बावजूद कटु जमीनी सच्चाई है। इसे दूर करने के लिए तत्काल कदम उठाने होंगे। इसके बावजूद इस सर्वे के विस्तार में जाने से पहले एक पूर्व शर्त है।
वह यह कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में राष्ट्रीय औसत पूरी सच्चाई नहीं बता सकता। देश को उसकी संपूर्णता में समझने और इसकी कमियों के बारे में जानने के लिए किसी को भी राज्यों और जिलों के आंकड़ों तक जाना होगा। स्त्री शिक्षा से जुड़े आंकड़े का मामला ही लीजिए। ताजा सर्वेक्षण बताता है कि देश की 41 प्रतिशत महिलाओं ने 10 साल तक स्कूली शिक्षा प्राप्त की है-यह 2015-17 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की तुलना में बेहतर है, जिसमें बताया गया था कि 37 फीसदी महिलाओं ने 10 साल तक स्कूली शिक्षा हासिल की है।
ताजा सर्वेक्षण में इस मोर्चे पर हुए मामूली सुधार के बावजूद कुछ राज्य स्त्री शिक्षा के मामले में पिछड़े हुए हैं। जैसे, बिहार में 28 प्रतिशत महिलाओं ने ही न्यूनतम स्कूली शिक्षा हासिल की है। जबकि इसी अवधि में केरल में स्कूली शिक्षा हासिल करने वाली महिलाएं 77 फीसदी हैं। महिला श्रम भागीदारी के मामले में भारत दुनिया के बदतर देशों में से है। दूसरी ओर, यहां 15 साल और उससे बड़ी लड़कियां, जो देश की स्त्री जनसंख्या का एक तिहाई हैं, काम कर रही हैं या नौकरी की तलाश में हैं।
यह बात बार-बार कही जाती है कि हमारे यहां श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी कम है, क्योंकि वे उच्च शिक्षा हासिल कर रही हैं। पर एनएफएचएस-5 का आंकड़ा बताता है कि देश की आधी से ज्यादा महिलाओं ने स्कूली शिक्षा पूरी ही नहीं की है। फिर यह बात कैसे सच हो सकती है कि महिलाओं के उच्च शिक्षा प्राप्त करने के कारण श्रम बल भागीदारी में महिलाएं कम हैं? एक और तथ्य लेते हैं, जो देश की जनसंख्या की बुनियादी ताकत है- वह है बच्चों का स्वास्थ्य और उनके पोषण की स्थिति।
सच्चाई यह है कि इस देश के बच्चों को शुरुआती वर्षों में पोषणयुक्त भोजन की न्यूनतम मात्रा भी नहीं मिल पाती, जो उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बहुत जरूरी है। सरकार द्वारा चलाए जा रहे 'एनीमिया मुक्त भारत' अभियान के बावजूद पूरे देश के बच्चों में रक्ताल्पता की शिकायत आम है। एक थिंकटैंक इंस्टीट्यूट फॉर कंपीटिटिवनेस के डॉ. अमित कपूर और जेसिका दुग्गल द्वारा एनीमिया पर तैयार 'द स्टेट ऑफ इनइक्वैलिटी इन इंडिया रिपोर्ट' नाम से एक दूसरा दस्तावेज भी, जिसे प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष डॉ. बिबेक देबरॉय ने जारी किया है, एनीमिया पर सरकारी आंकड़ों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
इस दस्तावेज के मुताबिक, छह से 59 महीने तक के 67 फीसदी बच्चे एनीमिया से ग्रस्त हैं। जबकि एनएफएचएस-4 की रिपोर्ट में 59 प्रतिशत छोटे बच्चों को एनीमिया से ग्रस्त बताया गया था। जाहिर है, स्वास्थ्य के मोर्चे पर नवजातों की स्थिति नहीं सुधरी है। 15 से 49 साल की 57 फीसदी महिलाएं और 25 प्रतिशत पुरुष एनीमिया से ग्रस्त हैं। यह राष्ट्रीय औसत है। मध्य प्रदेश में छह से 59 महीने के 72.7 प्रतिशत बच्चों को एनीमिया है, यानी उन्हें पर्याप्त प्रोटीन नहीं मिल पाता।
यह तो पहले से ही स्पष्ट है कि देश के अमीर और गरीब राज्यों के बीच पोषण की स्थिति में अंतर है। मसलन, बिहार में अब भी पोषण के अभाव में कमजोर बच्चों का आंकड़ा देश में सबसे अधिक है। वहां पांच साल से कम उम्र के 41 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं, तो 42.9 प्रतिशत बच्चे नाटे हैं। कद के अनुरूप बच्चों का वजन न बढ़ने के मामले मेंमहाराष्ट्र सबसे आगे है। वहां 25.6 फीसदी बच्चों का वजन उनके कद के अनुरूप नहीं है, जबकि 10.9 प्रतिशत बच्चों का वजन उनके कद के हिसाब से बहुत ही कम है।
एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट स्वास्थ्य से जुड़े ए क और निराशाजनक परिदृश्य के बारे में बताती है।छह से 23 महीने के आयु वर्ग के देश में मात्र 11 फीसदी बच्चे ही हैं, जिन्हें मां के दूध के अलावा भी पोषक खाद्य पदार्थ मिलता है। उत्तर प्रदेश में इस आयु वर्ग के महज 5.9 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे हैं, जिन्हें मां के दूध के अलावा अन्य पोषक खाद्य पदार्थ उपलब्ध है। यह आंकड़ा स्तब्ध करने वाला है, क्योंकि बच्चों के जीवन के शुरुआती 1,000 दिन उनके शारीरिक विकास के साथ-साथ उनके मस्तिष्क के विकास के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण होते हैं।
इस संदर्भ में डॉ. अरुण गुप्ता का, जो ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया के केंद्रीय समन्वयक होने के अलावा पोषाहार विशेषज्ञ भी हैं, कहना है कि हमारे यहां स्वास्थ्य क्षेत्र में अग्रिम पंक्ति के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की संख्या उतनी नहीं है, जो बच्चों के विकास पर लगातार नजर रखें, बच्चों का समुचित शारीरिक विकास न होने की स्थिति में अभिभावकों को सूचित करें और बताएं कि सिर्फ मां का दूध नहीं, बच्चों के लिए अन्य पोषक पदार्थ भी जरूरी हैं।
ज्यादातर गरीब घरों में न तो पैसा है, और न ही बच्चों के पोषण पर ध्यान देने की आदत। लेकिन अगर हमें बच्चों के भविष्य की चिंता है, तो यह आदत बदलनी होगी। देश के स्वास्थ्य से संबंधित सरकार द्वारा जारी ताजा आंकड़ा जहां यह बताता है कि कुपोषण और एनीमिया अब भी बड़ी समस्याएं हैं, वहीं पता चलता है कि बच्चों में मोटापा भी चिंताजनक रूप से बढ़ रहा है। उत्तर प्रदेश जैसे कम आय वाले राज्य में भी पांच साल से कम उम्र के 3.5 फीसदी बच्चे मोटे हैं, जबकि एनएफएचएस-4 की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में इस आयु वर्ग में 1.5 फीसदी बच्चे ही मोटे थे।
ऐसे ही छत्तीसगढ़ में मोटे बच्चों का आंकड़ा पिछले सर्वे में 2.9 फीसदी था, जो मौजूदा सर्वे में बढ़कर चार प्रतिशत हो गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि ग्रामीण इलाकों में जंक फूड की बढ़ती पहुंच से यह समस्या बढ़ रही है। हालिया नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में चिंतित करने वाले ऐसे कई तथ्य हैं, जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।
सोर्स: अमर उजाला
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