सम्पादकीय

ग्रामीण भारत में बच्चे ट्यूशन के भरोसे, कैसे पटरी पर आए शिक्षा?

Gulabi
23 Nov 2021 4:44 PM GMT
ग्रामीण भारत में बच्चे ट्यूशन के भरोसे, कैसे पटरी पर आए शिक्षा?
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विश्व बाल अधिकार सप्ताह के दौरान आई असर 2021 रिपोर्ट हमारे सामने कुछ चौंकाने वाली बातें रखती है
विश्व बाल अधिकार सप्ताह (14 से 20 नवम्बर) के दौरान आई असर 2021 रिपोर्ट हमारे सामने कुछ चौंकाने वाली बातें रखती हैअसर ने वर्ष 2021 के लिए अपनी रिपोर्ट 'एनुअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट' (ग्रामीण) जारी की है. यह असर की सोलहवीं रिपोर्ट है. अच्छी बात यह है कि कोविड लॉकडाउन और विपरीत परिस्थितियों के बाद भी इस रिपोर्ट के लिए काम चलता रहा, ताकि शिक्षा की एक स्थिति सामने आ सके. कोविड लॉकडाउन और स्कूल न खुलने का असर जांचना इसलिए भी जरूरी था, ताकि आनलाइन माध्यमों को एक वैकल्पिक साधन के रूप में कठोरता से जांचा जा सके. इसके लिए संस्था ने एक फोन के माध्यम से शिक्षा की स्थिति को जांचा.
इस सर्वे में असर ने यह पता लगाया कि महामारी की शुरुआत से घर पर पढ़ाई कर रहे 5 से 16 वर्ष के बच्चे किस तरह से पढ़ाई कर पा रहे हैं, यह उनके लिए कितनी आसान या कठिन है!
टयूशन क्यों बढ़ गई?
अध्ययन में सामने आया है कि 2018 तक केवल 30 प्रतिशत बच्चे राष्ट्रीय स्तर पर टयूशन लेते थे, लेकिन 2021 आते-आते यह अनुपात बढ़कर 40 प्रतिशत तक पहुंच गया है. यह अनुपात लड़के लड़कियों में भी बढ़ा और सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही तरह के स्कूलों के लिए बढ़ा. इसमे ज्यादा प्रतिशत उन बच्चों को बढ़ा जिनके माता-पिता केवल प्राथमिक कक्षाओं तक ही पढ़े हैं. यह भी पाया गया कि जो स्कूल सर्वेक्षण के दौरान आनलाइन माध्यम से ही पढ़ा रहे थे, वहां के बच्चे ज्यादा टयूशन पढ़ रहे थे.
दूसरी ओर एक और ट्रेंड देखने को मिला कि निजी स्कूलों में नामांकन आठ प्रतिशत तक घट गया. 2018 में जहां 32.5 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ाई करते थे, वहीं 2021 में यह 24.4 फीसदी रह गया. वहीं 15-16 साल की उम्र वाले छात्र-छात्राओं का सरकारी स्कूलों में नामांकन 57 प्रतिशत से बढ़कर 67 प्रतिशत हो गया. यह तस्वीर दिखाती है कि बच्चों की पढ़ाई के लिए पालक तो चिंतित हैं, लेकिन उन्हें बेहतर स्कूल चाहिए होंगे जो सस्ते हों और वहां पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके.
पालकों ने एक समय में निजी स्कूलों से बेहतर शिक्षा की अपेक्षा रखते हुए बड़े पैमाने पर निजी स्कूलों में बच्चों को दाखिला करवाया दिया था, लेकिन कोविड19 के संकट के बाद वह इन स्कूलों की मोटी फीस को वहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं. यदि ऐसा न हुआ तो बच्चों का बड़े पैमाने पर ड्राप आउट होता दिखाई देगा.
गरीबी में गीला आटा बना स्मार्टफोन
ग्रामीण भारत और शहरी भारत में कोविड से पहले एक बड़ा डिजिटल डिवाइड था. या तो स्मार्ट फोन की कमी थी, या कवरेज नहीं मिलता था. साथ ही, नॉलेज में भी बड़ा गैप था. कोविड के बाद मोबाइल खरीदना पालकों की मजबूरी बनी. रिपोर्ट बताती है कि 2018 में स्मार्टफोन की उपलब्धता जहां 36.5 प्रतिशत थी, वह बढ़कर 67.6 प्रतिशत हो गई. निजी स्कूल में दाखिला लेने वाले 79 प्रतिशत बच्चों के पास स्मार्ट फोन थे, वहीं सरकारी स्कूल के केवल 63 प्रतिशत विदयार्थियों के पास ही इनकी उपलब्धता थी. कोविड लॉकडाउन और आनलाइन शिक्षा के बाद बड़ी संख्या में पालकों ने मोबाइल फोन खरीदा है. ऐसे में यह एक और अतिरिक्त खर्च बनकर सामने आया.
अब यह हालात हैं कि नामांकित बच्चों के 67.6 प्रतिशत घरों में स्मार्टफोन तो है, लेकिन इनमें से 26 प्रतिशत बच्चों को स्मार्टफोन उपलब्ध नहीं है. इसके कई कारण हो सकते हैं, यह भी संभव है कि मोबाइल फोन खरीदने के बाद डेटा पेक डलवाने का भी संकट हो या विदयार्थी पढ़ाई के अलावा भी गेम्स आदि में भटक जाते हों. इन सब नतीजों के सबक तो यही हैं कि आनलाइन एजुकेशन किसी भी स्थिति में शिक्षा का विकल्प नहीं बन पाई है. पर इसे रचनात्मक कैसे बनाया जाए, इसके लिए एक अलग शिक्षा की जरुरत है, यानि कि नयी तकनीक का उपयोग भी हो सके और भटकन की आशंकाएं भी कम से कम हों.
परिवार में भी सहयोग की जरुरत
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि लॉकडाउन के दौरान माता—पिता बच्चों को पढ़ने में अधिक सहयोग कर रहे थे, लेकिन जैसे ही कोविड के प्रतिबंध शिथिल हुए और जनजीवन सामान्य होने की तरफ बढ़ा, वैसे ही पढ़ाई में सहयोग कम हो गया. ध्यान दीजिए, यह ग्रामीण भारत की तस्वीर है और इस रिपोर्ट के प्रकाश में अब ग्रामीण भारत के बच्चों की बुनियादी शिक्षा पर बहुत अधिक ध्यान देने की जरुरत है. अब जरुरत इस बात की है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की बड़े पैमाने पर भर्ती की जाए, ताकि सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय मिले, उन्हें केवल शैक्षणिक कार्यों में ही लगाया जाए, और पूरा जोर कोविड के प्रभावों को खत्म करने पर हो. इस बात पर भी जोर देना चाहिए कि परिवार के अंदर बच्चों को परिजनों का पढ़ाई में कैसे पर्याप्त सहयोग मिले, डिजिटल खाई को पाटने की जरुरत तो खैर है ही.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
राकेश कुमार मालवीय
राकेश कुमार मालवीयवरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.
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