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छोटे बच्चे जब स्कूल से आया करते थे तो अपनी हर बात बताया करते थे
बीके शिवानी। छोटे बच्चे जब स्कूल से आया करते थे तो अपनी हर बात बताया करते थे। और हम हर बात सुनकर मुस्कुराते थे, क्योंकि हमें हर बात अच्छी लगती थी। फिर वो थोड़े से बड़े हुए तो उन्होंने आकर एक दिन कहा- "आज हमने स्कूल से भागकर पिक्चर देखी'। उस दिन पहली बार आपसे सजा मिली थी जोर से। वो तो सच बोल रहे थे, रोज सच बोलते थे। उस दिन भी तो आकर सच ही बोला था। लेकिन उस दिन उनको प्यार से जवाब नहीं मिला।
उनको ये सुनने को मिला आप गलत हो। थोड़े महीने के बाद उन्होंने एक और बात बताई कि आज हम इधर गए और ये काम किया। उस दिन तो उनको और जोर से जवाक दिया था कि आप गलत हो। दो-तीन बार उन्होंने सुन लिया ना कि आप गलत हो... आप गलत हो... फिर तो उन्होंने बताना ही बंद कर दिया। पहले वो हमारे आसपास गोल-गोल घूमते थे और बताते थे कि आज हमने क्या-क्या किया। आज हम उनके गोल-गोल घूमते हैं।
पूछते हैं कि किधर गए थे, किससे मिले थे, किससे बात की थी, क्या खाया था? पहले हम पूछते नहीं थे फिर भी वो बताते थे। आज हम पूछते रहते हैं तो भी वो अपनी सारी बात नहीं बताते हैं। कहते हैं बाहर जाओ, दरवाजा बंद कर दो, मुझे थोड़ी देर अकेले रहने दो। रिश्ता वही है। लोग दोनों वही हैं। पहले हरेक बात एक-दूसरे से बताते थे। आज छुपाने क्यों लग गए? फोन में पासवर्ड हो गए, लैपटॉप में पासवर्ड हो गए।
पासवर्ड कैसे आ गया बीच में? हम तो एक-दूसरे को अपनी हरेक बात बताया करते थे, लेकिन तब तक बताते थे जब तक सामने वाले से हमें स्वीकार्यता मिलती थी। हरेक आत्मा को एक ही चीज चाहिए रिश्ते में स्वीकार्यता। लेकिन जिस दिन हमने उनको कहा आप गलत हो। पहली बार रिजेक्शन, दूसरे दिन कहा आप बोल गलत हो, दूसरी बार रिजेक्शन। उसके बाद उन्होंने बताना ही बंद कर दिया। हमने सोचा उन्होंने करना बंद कर दिया होगा।
हमने कहा कि हमने डांट लगाई न तो करना बंद कर दिया उसने। उन्होंने करना नहीं बंद किया, उन्होंने बताना बंद किया। दोनों बातों में बहुत फर्क है। आज अपने बच्चों से जाकर कहिएगा कि तुम अपने जीवन की हर बात मुझे बता सकते हो। और मैं गारंटी देता हूं कि जब आप अपनी बात बताओगे आपको मेरी तरफ से स्वीकार्यता और सहयोग मिलेगा। रिजेक्शन और गुस्सा नहीं मिलेगा।
कोई भी बच्चा अपनी मम्मी-पापा से झूठ बोलना नहीं चाहता है। अंदर बड़ी तकलीफ होती है। बच्चे झूठ बोलते हैं सिर्फ डांट के डर से, रिजेक्शन के डर से। आज का समय वो नहीं है कि बच्चे हमसे अपनी बातें छुपाएं। वो समय गया कि जब पड़ोसी आकर बताता था हमने आपके बच्चे को उधर देखा, ध्यान रखना वो ये खा रहा था, वो इसके साथ था। अब पड़ोसी आपके पास कुछ बताने नहीं आएगा।
उनका मानना है कि हम नहीं दखल देने वाले किसी के निजी जीवन में। हमें क्या। वो खुद संभाले अपने बच्चों को। वो समय गया कि घर का फोन बजता था तो आप सतर्क हो जाते थे। जाकर उठाते थे फोन कि किसने फोन किया है मेरे बच्चे के लिए। अब तो उनके फोन पर भी पासवर्ड है आपको पता ही नहीं चल सकता कि किसका क्या फोन आया। अब कौनसा तरीका इस्तेमाल करेंगे हम अपने बच्चों को संभालने के लिए या बचाने के लिए।
इसका सिर्फ एक ही तरीका है। वो खुद अपनी हर बात आपको बताएं और कोई तरीका नहीं है। आप अपने बच्चों की रक्षा-सुरक्षा कर सकें तो वो खुद अपनी हर बात बताएंगे। आपको चाहिए कि वो अपनी हर बात खुद बताएं। आप सिर्फ ये निश्चय कर लीजिए कि आप सुनने के लिए तैयार हैं। स्कूल बंक करके पिक्चर देखने जाना गलत है। लेकिन जब सारे बच्चे बंक कर रहे थे, तो मेरा भी मन नहीं था कि मैं अकेले उस क्लास में बैठकर पढूं। और अगर मैं अकेले पढ़ भी लेता तो सब मेरा कितना मजाक उड़ाते। फिर मुझे बॉयकाट ही कर देते उस ग्रुप से। तो मेरा भी मन कर गया और मैं भी चला गया पिक्चर देखने। मेरा मन करना सही है या गलत है।
स्कूल बंक करना - गलत है, लेकिन जब मेरे सारे दोस्त कर रहे थे तब मेरा भी मन किया ये सही है या गलत है। सही है। बस उस बच्चे को यही कहना है आप सही हो जो आप सबने किया वो गलत है। उस बच्चे को स्वीकार करो। उसने जो किया उसे अस्वीकार करो। लेकिन अगर हमने कहा आप गलत हो तो हम उसको ही अस्वीकार कर देते हैं। इसके बाद वो हमें अपनी हर बात बताना बंद कर देते हैं। जब उनके जीवन में कोई समस्या आती है तो हमें बताने के बजाए औरों से जाकर बात करते हैं।
Rani Sahu
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