सम्पादकीय

बच्‍चे सबसे अच्‍छे, लेकिन उन बच्‍चों का बचपन उतना अच्‍छा भी नहीं, जितना हमें लगता है

Rani Sahu
6 Dec 2021 9:11 AM GMT
बच्‍चे सबसे अच्‍छे, लेकिन उन बच्‍चों का बचपन उतना अच्‍छा भी नहीं, जितना हमें लगता है
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दुनिया में कोई माता-पिता न अपने बच्‍चों का बुरा करना चाहते हैं

मनीषा पांडेय दुनिया में कोई माता-पिता न अपने बच्‍चों का बुरा करना चाहते हैं, न उन्‍हें नुकसान पहुंचाना और न ही उन्‍हें किसी तरह की शारीरिक और मानसिक क्षति देना, लेकिन फिर भी दुनिया में 70 फीसदी से ज्‍यादा वयस्‍क अपने बचपन में किसी न किसी रूप में चाइल्‍डहुड ट्रॉमा के शिकार रह चुके हैं. यह कहना है अमेरिकन साइकोलॉजिस्‍ट एसोसिएशन का. "चाइल्‍ड साइकॉलजी ऑफ अर्ली ट्रॉमा" के मुताबिक अकेले अमेरिका में 43 फीसदी वयस्‍क चाइल्‍डहुड अटैचमेंट डिसऑर्डर के शिकार हैं, जिसका असर वयस्‍क जीवन में मानसिक और शारीरिक बीमारियों के रूप में प्रकट होता है.

इसी संबंध में दो दिन पहले अमेरिका की पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंस के जरनल PLOS ONE में एक स्‍टडी छपी है, अवसाद, एंग्‍जायटी और डिप्रेशन के शिकार माता-पिता के बच्‍चों में मेंटल हेल्‍थ डिसऑर्डर डेवलप होने की संभावना ज्‍यादा होती है.
इस नई स्‍टडी में प्रो. ब्रॉफी और उनके सहयोगियों ने SAIL ( Secure Anonymised Information Linkage) डेटा को एक जगह इकट्ठा करके उसका विश्‍लेषण करने की कोशिश की है. वर्ष 2019 में वेल्‍श सरकार की फंडिंग से यह अध्‍ययन किया गया और इसका डेटा को एक जगह एकत्रिक किया गया, जिसे सिक्‍योर एनॉनिमाइज्‍ड इंफॉर्मेशन लिंकेज (SAIL) का नाम दिया गया. इस अध्‍ययन में वेल्‍श (यूके) में 1987 से 2018 के बीच पैदा हुए बच्‍चों के मानसिक, शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य, एकेडमिक परफॉर्मेंस, बीमारियों, इमोशनल, सोशल व्‍यवहार आदि का अध्‍ययन किया गया. सिर्फ बच्‍चे ही नहीं, बल्कि बच्‍चों के साथ-साथ माता-पिता की भी सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, भावनात्‍मक स्थिति, उनके सोशल और इमोशनल पैटर्न, हेल्‍थ, इलनेस, बीमारियों आदि को अध्‍ययन में शामिल किया गया.
यह अध्‍ययन इस बात को समझने की कोशिश थी कि क्‍या माता-पिता का डिप्रेशन, मेंटल हेल्‍थ, सोशल बिहेवियर पैटर्न बच्‍चों में भी स्‍थानांतरित होता है. वेल्‍श की जनसंख्‍या इस वक्‍त 30 लाख 60 हजार के आसपास है और 18 वर्ष से कम आयु के बच्‍चों की संख्‍या 8 लाख के आसपास है. इस आंकड़े के मुताबिक वेल्‍श स्‍टडी का सैंपल साइज अच्‍छा-खासा था.
उसी वेल्‍श स्‍टडी के वृहत्‍तर आंकड़ों के अध्‍ययन पर आधारित ये नतीजे पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंस के जरनल PLOS ONE में प्रकाशित हुए हैं. ये सारे अध्‍ययन साइंटिफिक स्‍टडी के उसी सिलसिले को आगे बढ़ाने की कोशिश हैं, जिसकी शुरुआत 19वीं सदी की शुरुआत में डॉ. जॉन बॉल्‍बी ने की, जिन्‍होंने सबसे पहली बार अटैचमेंट डिसऑर्डर टर्म का इस्‍तेमाल किया और बच्‍चे के मानसिक विकास से संबंधित एक नई थियरी विकसित की, जिसका नाम था- अटैचमेंट थियरी.
आज अमेरिका, यूके समेत दुनिया के तमाम विकसित देशों में हुए 1300 से ज्‍यादा अध्‍ययन इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि वयस्‍क जीवन में अवसाद, डिप्रेशन और क्रॉनिक मानसिक और शारीरिक बीमारियों का शिकार होने वाले अधिकांश लोगों का बचपन बहुत ट्रॉमैटिक रहा है. बचपन के बुरे अनुभव, प्‍यार और लगाव का अभाव या माता-पिता का अवसाद, फैमिली क्राइसिस या पैरेंट्स से अलगाव बच्‍चों के मेंटल डेवलपमेंट को बाधित करता है. यह भावनात्‍मक मसला नहीं है, बल्कि ब्रेन वायरिंग में हुए गंभीर बदलाव हैं.
उदाहरण के लिए डॉ. गाबोर माते इस बात को कुछ इस तरह समझाते हैं, "अगर कोई व्‍यक्ति देख नहीं सकता, सुन नहीं सकता या उसका हाथ, पैर या शरीर का कोई अंग सलामत नहीं है तो हम उसे विकलांग या इंपेयर्ड कहते हैं. वैसे ही मनुष्‍य के दिमाग का स्‍वस्‍थ विकास जब किन्‍हीं भी बाहरी और आंतरिक कारणों से अवरुद्ध हो जाता है तो यह एक तरह की मेंटल इंपेयर्डनेस है. यानि वह अंग और उस अंग से जुड़ी सारी वायरिंग ठीक से काम नहीं कर रही है."
मनुष्‍य संपूर्ण विकसित मस्तिष्‍क के साथ पैदा नहीं होता. मस्तिष्‍क का विकास अपने आसपास के वातावरण के साथ इंटरेक्‍शन से होता है. अगर वातावरण स्‍वस्‍थ, सुरक्षित और खुशहाल है तो मस्तिष्‍क स्‍वस्‍थ ढंग से विकसित होगा और वातावरण में अवसाद, दुख, तनाव, गरीबी, असुरक्षा, डर या किसी भी अन्‍य प्रकार की नकारात्‍मकता है तो उसका सीधा असर बच्‍चे के मस्तिष्‍क के विकास पर पड़ेगा और वह पूरी तरह डेवलप नहीं हो पाएगा.
डॉ. जॉन बॉल्‍बी अपनी अटैचमेंट थियरी में दाे तरह के अटैचमेंट की बात कहते हैं. एक तो माता-पिता या प्राइमरी केयरगिवर की अनुपस्थिति. जैसे मां की मृत्‍यु हो जाना या किसी भी वजह से नवजात का अपने बायलॉजिकल माता-पिता से फिजिकली अलग हो जाना और दूसरा उनके आसपास मौजूद होने के बावजूद बच्‍चे को वो प्‍यार, लगाव, सुरक्षा और खुशी न मिलना, जो उसके न सिर्फ विकास, बल्कि प्राइमरी सरवाइवल के लिए जरूरी है.
डॉ. बॉल्‍बी के मुताबिक 3 साल की उम्र तक प्राकृतिक रूप से बच्‍चों की फिजियोलॉजी सिर्फ सरवाइवल केंद्रित होती है. उस अवस्‍था में प्राइमरी केयरगिवर के साथ अटैचमेंट की बुनियादी जरूरतें पूरी न होने पर बच्‍चे का मस्तिष्‍क अपने सरवाइवल के लिए ऐसे पैटर्न विकसित कर लेता है, जिसे मनोविज्ञान की भाषा में इनसिक्‍योर ट्रॉमा अटैचमेंट कहते हैं. अबोध अवस्‍था में अवचेतन में विकसित हुए ये सरवाइवल पैटर्न आगे चलकर एडल्‍ट लाइफ में पैथालॉजिकल कंडीशन बन जाते हैं.
PLOS ONE में छपी स्‍टडी एक बार फिर उसी तथ्‍य क पुष्टि कर रही है, जिस पर आज पूरी दुनिया में न्‍यूरोसाइंस और साइकॉलजी का जोर है कि अगर मेंटल इलनेस का, एडिक्टिव पैटर्न्‍स का, सोशियोपैथिक साइकॉलजी का इलाज करना है तो उसकी जड़ों को और उसके बुनियादी कारणों को समझना होगा और बिना किसी अपवाद के उसके कारण इंसान के शुरुआती जीवन में, उसके बचपन में होते हैं. इस समस्‍या को जड़ से तभी खत्‍म किया जा सकता है, जब उसके सही कारणों की शिनाख्‍त हो.
डॉ. गाबोर माते कहते हैं कि मेडिसिन कई केसेज में जरूरी होती है और बहुत मददगार भी, लेकिन अगर कोई शरीर की बीमारी को मन से काटकर सिर्फ शरीर का इलाज करने की कोशिश कर रहा है तो उसे कभी सफलता नहीं मिलेगी.
जैसेकि बच्‍चों में ADHD (अटेंशन डिफिसिट हायपर एक्टिविटी डिसऑर्डर) के लिए बच्‍चे को मेडिकेशन देना एक खतरनाक मेडिकल जजमेंट है, जिसके नतीजे खतरनाक हो सकते हैं. अगर कोई बच्‍चा ADHD से पीडि़त है तो इसकी वजह उसके वातावरण में है. उस कारण को ठीक किए बगैर दवाई के भरोसे बच्‍चे का इलाज करने की कोशिश आगे चलकर ज्‍यादा गंभीर मानसिक बीमारियों का कारण बन
सकती है.
Rani Sahu

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