सम्पादकीय

पिता के अधिकारों की अवहेलना, दांपत्य संबंधों की कड़वाहट से प्रभावित होते बच्‍चे

Rani Sahu
30 July 2022 5:09 PM GMT
पिता के अधिकारों की अवहेलना, दांपत्य संबंधों की कड़वाहट से प्रभावित होते बच्‍चे
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पिता के अधिकारों की अवहेलना

सोर्स- Jagran

डा. ऋतु सारस्वत : बीते दिनों मद्रास उच्च न्यायालय ने मां के साथ रहने वाले बच्चे से मिलने के अधिकार से जुड़ी एक पिता की याचिका पर सुनवाई के दौरान महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उच्च न्यायालय ने कहा कि 'माता-पिता का अलगाव बाल शोषण का ही रूप है। अलगाव के समय भावनात्मक और मानसिक पीड़ा से गुजरने वाले अंतिम पीड़‍ित बच्चे ही होते हैं।' इसमें कोई संदेह नहीं कि माता-पिता के संबंधों की कड़वाहट और अलगाव का सर्वाधिक प्रभाव उनकी संतान पर होता है
आदर्श स्थिति तो यही है कि पति-पत्नी के संबंधों में माधुर्य और सामंजस्य हो, परंतु कई बार ऐसा नहीं हो पाता। विश्व का शायद ही ऐसा कोई समाज हो जहां विवाह का आदर्श स्वरूप कभी भंग न हुआ हो। इसके बावजूद दांपत्य संबंधों की कड़वाहट बच्चों के व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न करने का कारण नहीं बननी चाहिए। दुर्भाग्यवश अधिकांश वैवाहिक विवादों में बच्चों के संरक्षण की प्राप्ति का अधिकार नई लड़ाई का अखाड़ा बन जाता है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव बच्चे पर पड़ता है।
चूंकि आज भी बिना किसी वैज्ञानिक एवं तार्किक आधार के यह माना जाता रहा है कि मां नैसर्गिक रूप से बच्चे की हितैषी है, इसी कारण पिता के अधिकारों की निरंतर अवहेलना की जाती रही है। अमूमन बच्चों के संरक्षण का अधिकार मां को ही दिया जाता है। पिता के हिस्से में सप्ताह या 15 दिन में कुछ घंटे व्यतीत करने का अधिकार आता है। 'एक बच्चे को पिता चाहिए न कि विजिटिंग गेस्ट' यह टिप्पणी रिचर्ड ए वर्शक ने अपनी पुस्तक 'डाइवोर्स पायजन: हाउ टू प्रोटेक्ट योर फैमिली फ्राम बैडमाउथिंग एंड ब्रेनवाशिंग' में की है।
रिचर्ड और उनके सहयोगियों ने तलाक से उत्पन्न समस्याओं का अध्ययन करते हुए यह पाया था कि अलगाव के बाद बच्चे और उनके पिता को जितना समय एक दूसरे के साथ व्यतीत करने को मिलता है, उससे अधिक समय वे एक दूसरे के साथ बिताना चाहते हैं। रिचर्ड इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बच्चों के पालन-पोषण में पिता की भूमिका को आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित कर देना उनके साथ अन्याय है। रिचर्ड कहते हैं कि जो बच्चे मां के साथ बिताए गए समय के समान अनुपात में पिता के साथ समय व्यतीत करते हैं, उनका अकादमिक और सामाजिक जीवन उन बच्चों की अपेक्षाकृत बेहतर होता है, जिनका पालन एकल अभिभावक करते हैं।
दशकों से पिता को शिशु की सामाजिक दुनिया की लगभग अप्रासंगिक इकाई मानने वाली मानसिकता को कई शोधों ने नकारा है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह माना जाता रहा है कि मां-शिशु का संबंध अद्वितीय है और किसी अन्य की तुलना में उसका वर्चस्व सर्वथा महत्वपूर्ण है। माइकल लैंब और कुछ शोधकर्ताओं ने पाया कि नवजात शिशु जीवन के आरंभिक वर्षों में ठीक उसी प्रकार अपने पिता से संबंध स्थापित करता है, जैसा कि वह मां से करता है। अति आधुनिक विचारधारा वाले तो यह तर्क देकर पिता के अस्तित्व को पूरी तरह नकार देते हैं कि जब महिला आइवीएफ प्रक्रिया से गर्भवती हो सकती है तो पिता की आवश्यकता ही क्यों? आधुनिक विज्ञान हास्यपूर्ण ढंग से हमें पिता के बिना जीवन पर विचार करने की अनुमति देता है, परंतु ऐसा करके वह एक ऐसी पीढ़ी के निर्माण की बात करता है जो कि अवसादग्रस्त हो।
'द कैजुअल इफेक्ट आफ फादर एब्सेंस' में सारा मैकलानहां और डी. श्नाइडर पिता की अनुपस्थिति के नकारात्मक परिणामों की चर्चा करते हैं। डी. पेक्वेट का शोध 'द फादर चाइल्ड रिलेशनशिप एक्टिवेशन: ए न्यू थ्योरी टू अंडरस्टैंड द डेवलपमेंट आफ इन्फेंट मेंटल हेल्थ' बताता है कि पिता की बच्चों के जीवन में उपस्थिति उन्हें नवीन तथ्यों को खोजने, बाधाओं को दूर करने, अजनबियों की उपस्थिति में साहसी बनने और स्वयं के लिए खड़े होने के लिए प्रोत्साहित करती है। अभी तक यह माना जाता रहा है कि आक्सीटोसिन हार्मोन जन्म के बाद अपने बच्चों के साथ मां के प्रारंभिक बंधन में एक महती भूमिका निभाता है, लेकिन इस हार्मोन का स्राव उन पिताओं में भी आरंभ हो जाता है जो अपने नवजात बच्चों के पालन-पोषण में संलग्न होते हैं।
हमें यह समझना होगा कि बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण पिता की अनुपस्थिति में अधूरा रहता है। इसलिए अलगाव की स्थिति में उनके अस्तित्व की अवहेलना बच्चों से उनके उज्ज्वल भविष्य को छीनने जैसा है। लैंब का मानना है कि बच्चों के लिए सबसे लाभदायक स्थिति तो तभी होती है, जब माता-पिता दोनों ही बच्चों की परवरिश में सहभागी बनें, क्योंकि तब दो अलग व्यक्तित्व एक सुंदर व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। बेब फारेस्ट यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफेसर लिंडा नील्सन कहती हैैं कि साझा परवरिश में पलने वाले बच्चे चिंता, अवसाद और तनाव से संबंधित बीमारियों के प्रति कम संवेदनशील होते हैं। वह यह स्वीकार करती हैं कि साझा परवरिश का विरोध होने पर भी अगर अदालतें यह व्यवस्था करती हैं तो धीरे-धीरे दोनों पक्ष इसे स्वीकार भी कर लेते हैं, जो कि बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए आवश्यक है।
पश्चिमी देशों में पिता की भूमिका और बच्चों के जीवन में पड़ने वाले सकारात्मक प्रभावों पर निरंतर शोधों ने वहां की न्यायिक व्यवस्था में अलगाव की स्थिति में साझा परवरिश की अवधारणा को प्रतिस्थापित किया है, परंतु भारत में ऐसे शोधों का अभाव पिताओं की अवहेलना का कारण बन रहा है। निरंतर बढ़ते हुए निजी मतभेदों के बीच ऐसा मानना कि कि पति-पत्नी में अलगाव ही न हो तो यह अव्यावहारिक होगा। ऐसे में न्यायपालिका को साझा परवरिश की संकल्पना पर विचार करने की आवश्यकता है। अन्यथा बच्चों के हितों की बात कागजों तक सिमट कर रह जाएगी।
Rani Sahu

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