सम्पादकीय

नामीबिया से भारत पहुंचे चीतों से कई चिंताएं दूर होने की उम्मीद

Rani Sahu
19 Sep 2022 6:16 PM GMT
नामीबिया से भारत पहुंचे चीतों से कई चिंताएं दूर होने की उम्मीद
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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
गत शनिवार को जीव संरक्षण और संवर्धन के एक ऐतिहासिक घटनाक्रम में नामीबिया से चीतों को लाया गया तथा मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा गया. भारत में सत्तर साल पहले विलुप्त घोषित किए गए किसी प्राणी का इस तरह किसी दूसरे देश से लाया जाना अपने किस्म की एक अनोखी घटना है. हालांकि इसके लिए पिछले अनेक वर्षों में कई सरकारों ने प्रयत्न किए, किंतु प्रक्रिया सहज न होने के कारण उसे पूरा किए जाने में इतना अधिक समय लगा.
आखिरकार आठ चीतों को सकुशल लाने में सफलता मिली. यह घटनाक्रम देश के पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को लगातार संतुलित और संरक्षित रखने के प्रति वचनबद्धता को दर्शाता है. बावजूद इसके, देश में ही विलुप्त वन्य प्राणी के लाने और उसकी जरूरत पर अनेक सवाल-जवाब सुने जा रहे हैं.
एक तरफ जहां बताया जा रहा है कि इससे मध्यप्रदेश के एक पिछड़े जिले श्योपुर को पर्यटन से लाभ मिलेगा और उसकी अर्थव्यवस्था में नई तेजी आएगी, वहीं दूसरी ओर इसका सीधा संबंध पर्यावरण और पारिस्थितिकी से है, जो वर्तमान समय की बड़ी चिंताओं में से एक है.
दरअसल यह माना जाता है कि चीता घास में रहना पसंद करता है और उसके न रहने से भारत के घास पारिस्थितिकी तंत्र पर बड़ा असर पड़ रहा था. इस तंत्र के इर्द-गिर्द वन्य प्राणियों का एक अलग समूह अपना जीवन-यापन करता है. उन सभी के बीच एक 'फूड चेन' बनती है, जो सारी व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाती है. वह लगातार बिगड़ रही थी, जिसके कालांतर में मनुष्य को परिणाम भुगतने पड़ सकते थे.
वन्यजीवों के विशेषज्ञों के अनुसार किसी भी नेशनल पार्क में किसी बड़े शिकारी जीव को तब लाया जाता है, जब शिकारी की संख्या के अनुपात में शिकार मौजूद हो. साथ ही आवश्यकता अनुसार पार्क का आकार जोड़ा-घटाया जाता है. चीते का शिकार आमतौर पर वो जीव होते हैं, जिनका वजन 60 किलोग्राम के आस-पास होता है. इसी को देखते हुए कूनो नेशनल पार्क का पर्याप्त अध्ययन व पारिस्थितिकी और पर्यावरण को समझ कर चीतों को लाने का निर्णय लिया गया.
फिलहाल अपने किस्म की यह नई कोशिश क्या रंग दिखाएगी, यह आने वाले दिनों में समझ में आएगा, लेकिन इससे देश-दुनिया के लिए संदेश साफ है कि मानव जाति का गुजारा केवल ईंट-पत्थरों के बने घरों के आस-पास की सुविधाओं से ही नहीं, बल्कि जल-जंगल और जमीन के बीच संतुलन के साथ है, जिसमें मनुष्य के साथ सभी किस्म के प्राणियों की ठोस उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता है.
Rani Sahu

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