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- सिंहों के गढ़ में चीता
प्रमोद भार्गव: नए वातावरण में बिल्ली प्रजाति के प्राणियों को बसाना आसान नहीं होता। दक्षिण अफ्रीका से ही दिल्ली के चिड़ियाघर में चार चीतों को लाकर बसाया गया था, लेकिन एक-एक कर चारों चीते मर गए। चिड़ियाघरों में पाले गए बाघ, सिंह या चीतों को खुले जंगलों में छोड़ा जाता है, तो इनके नरभक्षी हो जाने का खतरा भी बना रहता है, क्योंकि इनकी शिकार करने की क्षमता लगभग खत्म हो जाती है।
कभी-कभी कुछ विडंबनाएं एक नई अनुकूल स्थिति का निर्माण कर देती हैं। ऐसा ही कुछ मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले में स्थित कूनो-पालपुर उद्यान में देखने में आ रहा है, जिसे विकसित तो गुजरात के गिरवन में मौजूद सिंहों के लिए किया गया था, लेकिन यह जंगल अब अफ्रीकी चीतों का गढ़ बनने जा रहा है। इस उद्यान में अब कभी बब्बर शेर नहीं लाए जा सकेंगे। दरअसल, बब्बर शेर केवल गुजरात के गिर राष्ट्रीय उद्यान में हैं।
इस प्रजाति को किसी महामारी या प्राकृतिक प्रकोप से बचाने की दृष्टि से भारत सरकार ने उन्हें एक नई जगह बसाने की दूरदर्शी योजना बनाई थी। इसके लिए 1992 में कूनो-पालपुर के आदिम जंगल को 'सिंह परियोजना' नाम से क्रियान्वित करने की मंजूरी दी गई। इसके लिए इस क्षेत्र के करीब तीन हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में बसे विशेष सहरिया जनजाति बहुल उनतीस गांवों को विस्थापित किया गया। इन गावों में आदिकाल से रह रहे 1,545 परिवारों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। इनका आज भी उचित पुनर्वास नहीं हुआ है।
हैरानी इस बात पर है कि लाचारों को तो एक झटके में जंगलों से खदेड़ दिया गया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद मध्यप्रदेश को गुजरात के बब्बर शेर (एशियाटिक लायन) नहीं मिल सके। इसलिए मजबूरन मध्यप्रदेश सरकार ने कूनो-पालपुर राष्ट्रीय उद्यान में अफ्रीकी चीते बसाने में की योजना बनाई।
उस समय हुए गुजरात और मध्यप्रदेश सरकार के बीच अनुबंध के अनुसार उद्यान में शेरों के लिए आवासीय क्षेत्र विकसित होने के बाद गुजरात सरकार को शेर देने थे, पर सरकार कोई न कोई बहाना करके शेर देने के अनुबंध को टालती रही। जबकि करीब ढाई सौ करोड़ रुपए खर्च करके 2003 में उद्यान को सिंहों की प्रकृति के अनुसार विकसित कर लिया गया था। शेर नहीं मिले, तो शीर्ष न्यायालय में याचिका दायर की गई।
चूंकि अनुबंध के अनुसार गुजरात सरकार को जवाब देना मुश्किल हुआ, तो उसने 'अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ' (आइयूसीएन) के दिशा-निर्देशों को ढाल बना लिया। इस संघ के पैंतीस मापदंड निर्धारित हैं, जिन्हें पूरा करने पर ही सिंहों को दूसरे स्थान पर बसाने का प्रावधान है। इनमें से कम समय में पूरे होने वाले कार्यों को मध्यप्रदेश सरकार ने पूरा कर लिया, जबकि लंबे समय के कार्यों को लेकर भरोसा जताया कि ये शेर आने के बाद पूरे कर लिए जाएंगे। पर गुजरात सरकार मापदंड पूरे करने के बाद ही शेर देने के लिए अड़ गई। गुजरात द्वारा सिंह संभवत: इसलिए नहीं दिए गए कि वहां पर्यटकों की आमद कम न हो जाए।
कूनो में छोड़े जाने के बाद चीते प्रजनन करने लगेंगे, तब भारत की धरती पर बिल्ली प्रजाति की पांच बड़ी प्रजातियां चहलकदमी करने लग जाएंगी। बाघ, शेर, तेंदुआ और हिम तेंदुआ, चार प्रजातियां भारत में पहले से हैं। अभी कूनो में तेंदुओं की बड़ी संख्या में उपस्थिति है ही, राजस्थान के रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान से बाघों की आमद कूनो में कभी-कभार दिखाई दे जाती है। 2006 में एक साथ छह बाघ दिखाई दिए थे। ये सभी बाघ रणथंभौर से पलायन कर कूनो आ गए थे।
कूनो का रहवास नामीबिया के प्राकृतिक रहवास की तरह है। इसके बावजूद नए वातावरण में बिल्ली प्रजाति के प्राणियों को बसाना आसान नहीं होता। दक्षिण अफ्रीका से ही दिल्ली के चिड़ियाघर में चार चीतों को लाकर बसाया गया था, लेकिन एक-एक कर चारों चीते मर गए। चिड़ियाघरों में पाले गए बाघ, सिंह या चीतों को खुले जंगलों में छोड़ा जाता है, तो इनके नरभक्षी हो जाने का खतरा भी बना रहता है, क्योंकि इनकी शिकार करने की क्षमता लगभग खत्म हो जाती है।
इसीलिए कूनो में इनके आहार की सुविधा के लिए पेंच राष्ट्रीय उद्यान से लाकर सत्ताईस चीतल चीतों के नए बाड़े में छोड़ दिए गए हैं। हालांकि इस उद्यान में चीतल, चिंकारा, नीलगाय, जंगली सूअर, खरगोश पहले से बड़ी संख्या में मौजूद हैं। दरअसल, ग्वालियर राज्य के राजपत्र के अनुसार लार्ड कर्जन ने तब के महाराजा माधवराव सिंधिया प्रथम को इस वनखंड में सिंहों के सरंक्षण और पुनर्वास की सलाह दी थी। 1904 में कर्जन शिवपुरी, मोहना और श्योपुर के जंगलों में शिकार करने आए थे, लेकिन उस समय तक यहां सिंह लुप्त हो चुके थे।
कर्जन की सलाह पर अमल करते हुए 1905 में डेढ़ लाख रुपए का वार्षिक बजट निर्धारित कर सिंहों के पुनर्वास की पहल इस जंगल में की गई। वन्य जीवन के जानकार अधिकारियों को सिंहों के पुनर्वास की जिम्मेदारी सौंपी गई। अधिकारियों ने पहले जूनागढ़ के नवाबों से सिंह लेने के प्रयास किए, लेकिन उन्होंने गुजरात सरकार की तरह सिंह देने से साफ इनकार कर दिया।
बाद में अधिकारी कर्जन का एक सिफारिशी पत्र लेकर इथियोपिया गए और दस सिंह शावक पानी के जहाज में बिठा कर मुंबई लाए। मगर मुंबई तक आते-आते दस में सात शावक ही बच पाए थे। इनमें तीन नर और चार मादा शेष बचे थे। इन शावकों को पहले ग्वालियर के चिड़ियाघर में पाला गया। वयस्क होने पर दो मादाओं ने पांच शावक पैदा किए। इन शावकों के बड़े होने पर आठ सिंह शिवपुरी जिले के सुल्तानगढ़ के जलप्रपात के पास बियाबान जंगल में छोड़े गए, लेकिन चिड़ियाघर के कृत्रिम और सुविधाजनक माहौल में पले और बड़े हुए ये सिंह वन्यजीवों का शिकार करने में अक्षम रहे। भूख के मिटाने के लिए इन्होंने पालतू मवेशियों और ग्रामीणों का शिकार शुरू कर दिया। 1910 से 1912 के बीच इन सिंहों ने एक दर्जन लोगों को मार डाला। इससे गांवों में हाहाकार मच गया।
तब ग्वालियर महाराज ने सिंहों को पकड़वा कर 1915 में श्योपुर के कूनो-पालपुर जंगल में बसाने का एक बार फिर असफल प्रयास हुआ। यहां भी इनकी आदमखोर प्रवृत्ति बनी रही। इन्हें फिर पकड़ने की कोशिशें हुर्इं, लेकिन ये पकड़ में नहीं आए। बाद में इन्हें नीमच, झांसी, मुरैना और पन्ना में मार गिराए जाने की खबरें मिली। जब उस वक्त चीतों या सिंहों का पुनर्वास संभव नहीं हुआ, जबकि उस समय घनघेर जंगल थे और आहार के लिए वन्य प्राणी भी बड़ी संख्या में मौजूद थे, इसलिए यह शंका स्वाभाविक है कि ये सिंह जंगल में मुक्त विचरण के बाद विस्थापित किए गए आदिवासियों के जीवन के लिए ही कहीं संकट न बन जाएं।
विचित्र है कि वन और वन्य प्राणियों का आदिकाल से सरंक्षण करते चले आ रहे आदिवासियों को बड़ी संख्या में जंगलों से केवल इसलिए बेदखल कर दिया गया कि इनका जंगलों में रहना वन्य जीवों के प्रजनन, आहार और नैसर्गिक आवासन के मद्देनजर हितहारी नहीं है। इसी कथित जीवनदर्शन के आधार पर समूचे मध्यप्रदेश में आदिवासियों को कथित विकास और पर्यटन के बहाने खदेड़े जाने का सिलसिला जारी है।
देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास जितना पुराना है, आदिवासियों को वनों से विस्थापित कर वन्यप्राणी अभयारण्यों की स्थापना का इतिहास भी लगभग उतना ही पुराना है। 1857 में मध्यप्रदेश के हिल स्टेशन पचमढ़ी की तलहटी में घने जंगलों में बसे गांव हर्राकोट के कोरकु आदिवासी मुखिया भूपत सिंह ने भी फिरंगियों के खिलाफ विद्रोह का झंडा फहराया था। प्रतिकार स्वरूप अंग्रेजों ने भूपत सिंह को हर्रा कोर्ट से दो साल के संघर्ष के बाद विस्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली। फिर इस जंगल से आदिवासियों की बेदखली के बाद इस वनखंड को 1859 में 'बोरी आरक्षित वन' घोषित कर दिया गया। तभी से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी सरकारें और वनाधिकारी विदेशियों द्वारा खींची गई लकीर के फकीर बने हुए हैं।