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by Lagatar News
Munna Kumar Jha
1952 में, चीता को आधिकारिक तौर पर भारत से विलुप्त घोषित कर दिया गया था. चीता भारत की प्राकृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे, और उन क्षेत्रों में एक कीस्टोन प्रजाति के रूप में काम करते थे, जिन पर उन्होंने शासन किया था. कीस्टोन प्रजातियां ऐसी प्रजातियां हैं जो अन्य जीवों की आबादी को उनके निवास स्थान में इस तरह से नियंत्रित करने में भूमिका निभाती हैं कि उनके बिना पूरा पारिस्थितिकी तंत्र ढह जाता है.
भारत के जिन मैदानों में चीता फलता-फूलता था, वे अब बड़े पैमाने पर समाप्त हो गए हैं अब वे क्षेत्र खेत में परिवर्तित हो गए हैं जो अब चीते अनुकूल नहीं हैं. हमेशा की तरह उनके पतन के लिए मनुष्य जिम्मेदार था. वश में करना आसान, कई कुलीनों के पास चीतों के विशाल अस्तबल थे जो मांग पर शिकार करते थे इसका ही परिणाम है की 1952 में, चीता को आधिकारिक तौर पर भारत से विलुप्त घोषित कर दिया गया था. भारत में 70 साल पहले ख़त्म हो गए चीते को आयतित करके लाया जा रहा है. वन्य जीव के जीवन को मीडिया के शब्दजाल ने जश्न बना दिया है जबकि भविष्य में इसके गंभीर पर्यावरणीय परिणाम होंगे. चीता नामीबिया से लाया गया है उस नामीबिया की जलवायु स्थिति और भारत के मध्य प्रदेश की कूनो की जलवायु स्थिति भिन्न है. महज़ हिरण को छोड़ देने से आयतित किए गए चीते का भरण नहीं होने वाला है. हर जीव अपने साथ एक ख़ास तरह का क्लाइमैटिक वातावरण बनाता है और उस वातावरण में छेड़छाड़ की थोड़ी बहुत गुंजाइश बनी रहती है मगर इसका मतलब यह नहीं है की आप उस जीव और जीवन के जलवायु परिस्थितिकि को 360 डिग्री तक बदल देंगे यह नामुमकिन है.
इसे ऐसे भी समझिए की भारत के किसी गर्म प्रदेश के आदमी को अचानक से आर्क्टिक में छोड़ दिया जाए तो क्या होगा? शायद बचना मुश्किल हो? शायद आदमी विज्ञान की मदद और उसके बुद्धि विवेक से सर्वाइव कर लेगा मगर जानवर का विज्ञान तो उसका अपना वातावरण होता है उसके साथ छेड़खानी होगी तो जानवर सर्वाइव कैसे करेगा ? हज़ारों साल के मानवीय विकास और सैकड़ों साल के विज्ञान के विकास और विस्तार का यह प्रयोगकाल चल रहा है. बीते सौ डेढ़ सौ सालों में जंगलों और जानवरों पर आदमी का वर्चस्व इतना बढ़ा है की दुनिया से लाखों जंगल ख़त्म हो गए है और असंख्य जंगली जीव सदा के लिए विलुप्त हो गए है. भारत से चीते की विलुप्ति भी उसी मानवीय विकास का एक दर्दनाक क़िस्सा है. नामीबिया जैसे देश जहां से भारत में चीता लाया जा रहा है वह वहाँ के प्रयावास के लिए एक गंभीर मसला है. भारतीय वन्यजीव संस्थान के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक, डॉ वाईवी झाला ने 2010 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा आयोजित एक प्रेस विज्ञप्ति के दौरान महत्वपूर्ण बात जिसे यहाँ रख रहा हूँ : "बड़े मांसाहारियों के पुनरुत्पादन को तेजी से खतरे में पड़ी प्रजातियों के संरक्षण और पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों को बहाल करने की रणनीति के रूप में मान्यता दी गई है. चीता एकमात्र बड़ा मांसाहारी है जिसे मुख्य रूप से ऐतिहासिक समय में भारत में अति-शिकार द्वारा विलुप्त किया गया है. भारत के पास अब नैतिक और पारिस्थितिक कारणों से अपनी खोई हुई प्राकृतिक विरासत को बहाल करने पर विचार करने की आर्थिक क्षमता है."
वरिष्ठ वैज्ञानिक, डॉ वाईवी झाला की बात माने तो दुनिया के धनी और शक्तिशाली देश के लिए भारत एक मॉडल भी बन सकता है, कोई भी धनी मुल्क धनबल के बल पर विलुप्त हुए जानवरों को आयातित कर सकता है. यहाँ यह समझना होगा की धन से किसी देश या किसी क्षेत्र की वनस्पतियों को आयतित नहीं कर सकते है.
जैसे-जैसे कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि जारी है, सूखे की लंबी अवधि के साथ दिन गर्म होते जा रहे हैं. चीते पहले से ही गर्म जलवायु में रहते हैं. तो तापमान में वृद्धि इन क्षेत्रों को कई पौधों और जीवों के लिए अनुपयुक्त बना देगी. भारत जैसे देश में जलवायु परिवर्तन का असर तेज़ी से हो रहा है जिसकी वजह से मानव आबादी अपने को बचाये रखने के लिए अधिक भूमि पर लगतार कब्जा कर रही है , इसका परिणाम है की जंगल और जानवर अपने आवास और अपने खाद्य स्रोतों को खो रहे हैं. इसके अलावा, वन्यजीव और मानवता के बीच संघर्ष जारी है, निरंतर चल रहे संघर्ष में जानवर को मारा ही जा रहा है.
तेजी से बदलते मौसम अन्य जानवरों के साथ चीते के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करेगी, यह जलवायु परिवर्तन है जो अन्य जानवरों के साथ चीता के निवास स्थान को पूरी तरह से मिटा सकता है. चीतों की वैध पुनर्स्थापन उनके जनसंख्या के लिए संकट ही पैदा करेगी. 1975 के बाद से, चीतों की संख्या 14,000 से घटकर लगभग 7,000 हो गई है. अगर यही सिलसिला जारी रहा तो जल्द ही चीता दुनिया से विलुप्त हो जाएगा.
जलवायु परिवर्तन की घटनाओं को ले कर अभी भी सजगता पर्याप्त नहीं है. इसका एक बड़ा कारण तो यह है क जलवायु परिवर्तन देश के राजनैतिक दलों का केंद्रीय सवाल नहीं है. जंगल में स्वतंत्र विचरण करने वाले जानवरों का संदर्भ पर्यापरवरण का एक केंद्रीय प्रश्न है. तो क्या केवल इवेंट बना कर हम इस गंभीर और संजीदा प्रश्न को बहस के दायरे में लाने से कतरा नहीं रहे. जरूरत इस बात की है क प्रकृतिक,वन्य संसाधन और जीव जंतु के गहरे सरोकारों को गहराइर से समझा जाए. इस सवाल को इवेंट से बाहर एक गंभीर संकट के बतौर इसे हल करने की दिशा में सार्थक कदम उठाने का वक्त पीछे दुबता जा रहा है.
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