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- चीता भी छोड़ता है
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दुनिया में हो रहे शोधों से अभी तक यह पता नहीं चल पाया है कि माउँटेन ड्यू के विज्ञापन में आने से पहले चीता कौन सा सॉफ्ट ड्रिंक पीता था। बस चीते के स्वभाव और आदतों के अध्ययन के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि प्यास बुझाने के लिए चीता आज भी तीन-चार दिनों में एकाध बार ही पानी पीता है। लेकिन सुना है कि आज़ादी के इस अमृत काल में जब से कूनो में नामीबिया से लाए गए आठ चीतों को छोड़ा गया है, जंगल में छोडऩे का सिलसिला शुरू हो गया है। वैज्ञानिक यह देख कर परेशान हैं कि अब तक दहाडऩे के नाम पर कुत्ते की तरह भौंकने वाला या बिल्ली की तरह म्याऊँ-म्याऊँ करने वाला चीता भारत में आने के बाद अचानक इतनी लम्बी-लम्बी कैसे छोडऩे लगा। पर यह उसके छोडऩे का ही पुण्य प्रताप है कि अब नामीबिया समेत पूरी दुनिया के बब्बर शेर भी कूनो में छोड़े गए चीतों को महान मान रहे हैं। यह बात दीगर है कि दुनिया के सबसे अधिक अमीर लोगों में शामिल अपने दो-चार लकड़बघ्घे व्यापारी मित्रों के सामने चीता अब भी चिंचियाता या मिमियाता ही है। भारतीय जंगल में संवैधानिक पदों पर बैठ कर छोडऩे वालों पर न कभी कोई प्रतिबंध रहा और न कभी सजा हुई। लेकिन लोक-लाज के चलते पहले वे इस बात का लिहाज़ कर लेते थे कि मर्यादाएं बनी रहें। लेकिन मानो अब तो हर रोज़ छोडऩे की प्रतिस्पर्धाओं में एक-दूसरे को पीछे छोडऩे की होड़ लगी रहती है।
हो सकता है रामानन्द के सीरियल रामायण में बात-बात पर देवलोक से अपनी निठ्ठली देव मंडली सहित पुष्प वर्षा करने वाले इन्द्र की तरह चीते के बार-बार छोडऩे पर अब भी पुष्प वर्षा होती हो। लेकिन कलियुग के प्रभाव के कारण यह पुष्प वर्षा सिफऱ् अंधभक्त ही देख सकते हों। अंधभक्तों की यह मंडली छोडऩे वाले को कभी नरसिंह का अवतार बताती है तो कभी शेर। कभी छप्पन तो कभी चीता। लेकिन जिस तरह छप्पन इंची सीने के लिए आदमी का सूमो पहलवान होना ज़रूरी है, उसी तरह शेर होने के लिए कमर का ज़ीरो साईज़ होना ज़रूरी है। पर हो सकता है कि छोडऩे या चीता होने के लिए किसी संवैधानिक पद पर बैठा होना अनिवार्य हो और कमर का आकार महत्व न रखता हो। लेकिन छोडऩे वाला संवैधानिक पद पर होने के साथ-साथ अवतारी हो तो सोने पर सुहागा हो सकता है। ऐसे में उसके वल्र्ड लीडर घोषित होने में देर नहीं लगती। पर जिस तरह पप्पू को देशभक्तों और गोदियों ने मिल कर कुछ ही समय में लोकप्रिय बना दिया, उसी तरह गप्पू को चीते में बदल दिया।
समस्याओं पर उठने वाले सवालों को देशभक्तों और गोदियों ने छद्म व्यक्तित्व और मुद्दों के अखाड़े में छोड़ दिया है। जहां तक पप्पू की बात है तो भारत में जिस तरह बच्चों को सुलाने के लिए माँएं आज भी गब्बर सिंह का नाम लेती हैं, उसी तरह उन्हें करियर के प्रति जागरूक बनाते हुए कहती हैं, 'मेहनत कर ले बच्चा नहीं तो पप्पू की तरह राजनीति में धक्के खाएगा।' लेकिन छोडऩे के लिए केवल संवैधानिक पदों पर बैठे होना ही ज़रूरी नहीं। आदमी का हुनर-याफ़्ता होना भी ज़रूरी है। छोडऩे की कला में निकम्मा होने पर कलाम या मनमोहन सिंह जैसे विद्वान हाशिए पर धकेल दिए गए। लेकिन जो चीते छोडऩे के साथ-साथ मौक़ा पडऩे पर अपने शरीर के चितकों को भी छोड़ सकते हों या उनका रंग बदल सकते हों, उन्हें देवलोक में विचरण करने से कोई नहीं छोड़ सकता। कुछ दशक पहले बनी कहावत 'आया राम, गया राम' का वर्तमान में 'आया राम, गया राम, गया राम, आया राम' में बदलने का कारण चितके छोडऩा ही था। उधर, छोडऩे की कला में निपुण होने पर ही झाड़ू भाई ने पहले सरकारी नौकरी छोड़ी, फिर रामलीला मैदान में गन्ना चूसते हुए आंदोलन छोड़ा। बाद में पहली बार मुख्यमंत्री की कुरसी ऐसे छोड़ी, मानो चिपकने के लिए फेविकोल लाने को कैज़ुअल लीव ली हो।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
By: divyahimachal
Rani Sahu
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