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By: divyahimachal
पहली बार मानसून सत्र को इंतजार है मानसून का। आपदा के गहन संताप के बाद हिमाचल विधानसभा का आगामी सत्र का ऊंट किस करवट बैठता है, देखना होगा। अठारह से 25 सितंबर तक की सात बैठकों का मसौदा अगर विचार-विमर्श के स्तर को ऊंचा रख पाया, तो मालूम हो जाएगा कि राजनीति ऐसे मामलों में कितनी संवेदनशील है। यह हिमाचल को फिर से समझने का अवसर है और गैर राजनीतिक तौर पर यह जानने का मौका भी कि हम विपरीत परिस्थितियों में कितने सहज व सक्षम हैं। कम से कम अब तक आपदा की चीखों के बीच राजनीति के अपने ढोल बजते रहे हैं। नुक्ताचीनी में विपक्ष के आरोप और सत्ता के समाधान कहीं न कहीं भिड़ते रहे हैं, जबकि सदी की सबसे बड़ी त्रासदी के बीच सुक्खू सरकार की प्रयत्नशीलता की सराहना हुई है। ऐसे में प्रदेश खुद पर कितने अंकुश लगा पाता है या राहत एवं बचाव कार्यों के दृष्टिगत सियासत किस कद्र बदल जाती है, इसका अंदाजा विस सत्र में जरूर होगा। जिन्हें सत्ता की मलाई में श्रेष्ठता की दरकार है या जिन्हें विपक्षी जुबान में स्कोर अर्जित करने की जल्दी है, क्या यह प्रतिस्पर्धा कुछ समय के लिए रुकेगी। बुरे दौर की तमाम निशानियों के बीच जनता को सुखद एहसास का इंतजार है।
उठकर संभलने के लिए जिस आत्मबल की जरूरत है, उसका जिक्र विधानसभा का सत्र कर सकता है। हालांकि आपदा के दौरान ही विशेष सत्र की मांग उठी थी, लेकिन सरकार ने सर्वप्रथम खुद से खुद का हिसाब किया और तमाम फौरी जरूरतों में सुधार की प्रक्रिया को अहमियत दी। जाहिर तौर पर प्रदेश के कई आर्थिक मुहाने टूटे हैं, बाजारों में मंदी के बादल उभर आए हैं, लेकिन हिमाचल के अपने खर्चे बरकरार हैं। ऐसे में सत्ता से सवाल पूछने की बिसात अलग बात है, लेकिन इस बार बरसात के प्रश्नों पर यह सोच भी सामने आएगा कि जिन्हें हम चुनकर विधानसभा में भेजते हैं, वे विपरीत परिस्थितियों में कितने आविष्कारी हैं। क्या इन्हें अतीत की खामियां नजर आएंगी या भविष्य के प्रति नई संवेदना का आगाज करेंगे। सवाल तो स्कूलों की वार्षिक छट्टियों को लेकर भी हो सकता है, क्योंकि जिस ढर्रे से विभाग इनकी घोषणाएं करता रहा है, वे बुरी तरह असफल हुई हैं। हमारी आपदा की तैयारियां बुरी तरह असफल हुईं, तो विकास के कई मॉडल टूट कर गिरे, तो क्या हमारे जनप्रतिनिधि अपने तौर पर इनका विश्लेषण कर पाएंगे।
यहां मसला हिमाचल के अधिकारों और केंद्र की दृष्टि का भी है। क्या भाजपा केंद्र की अपनी सरकार का बचाव करती हुई मानसून सत्र गुजार देगी या किसी नई पहल के उद्गार प्रकट करेगी। इसमें दो राय नहीं कि आम आदमी को भी मालूम हो चुका है कि बरसात ने प्रदेश को बुरी तरह लील दिया है और दस हजार करोड़ की हानि को पाटने के लिए केंद्र से अभी कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं मिला है, बल्कि बारिश में भी बड़े बांधों में पानी की पूर्ण क्षमता को सहेज कर हिमाचल के हिस्से में छोड़ा गया पानी कहर बन कर टूटा है। पानी की कैद में हिमाचल पर बरसी दुख की बूंदें केवल हिमाचल की तो नहीं थीं, फिर बहस के कटोरे भीख के पात्र तो नहीं हो सकते। हिमाचल की प्राकृतिक विनाश लीला का अवलोकन करने कौन आया। कल तक हिमाचल में या चुनाव से पूर्व प्रधानमंत्री के रोड शो जिस प्रदेश की गर्दन उठाते थे, क्या सत्ता गंवाते ही गर्दन घूम गई। आखिर इस प्रदेश के नागरिकों की उपयोगिता आपदा के दौरान इतनी कमजोर क्यों हो गई कि केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं में अब यहां के लिए एक नजर भी नसीब नहीं। ऐसे में विधानसभा के सत्र में हिमाचली प्रश्नों पर सियासत की ईमानदारी की परीक्षा भी होगी।
Rani Sahu
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