सम्पादकीय

बात करने का जुगाड़

Subhi
17 Sep 2022 5:41 AM GMT
बात करने का जुगाड़
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हमारा देश जुगाड़ों का देश माना जाता है। एक टीवी चैनल पर तो देश भर में बनाए दिलचस्प जुगाड़ दिखाए जाते हैं। कहते हैं, जिन्हें सीधा रास्ता नहीं मिलता, वे जुगाड़ लगाकर या बनाकर सफलता हासिल करते हैं।

प्रभात कुमार: हमारा देश जुगाड़ों का देश माना जाता है। एक टीवी चैनल पर तो देश भर में बनाए दिलचस्प जुगाड़ दिखाए जाते हैं। कहते हैं, जिन्हें सीधा रास्ता नहीं मिलता, वे जुगाड़ लगाकर या बनाकर सफलता हासिल करते हैं। बात करना भी एक कला माना गया है, लेकिन बदले हुए विकसित परिवेश में महसूस होता है कि बात करना भी अब एक जुगाड़ हो चुका है। बात करने के कई प्रसिद्ध प्रकार और स्वाद के मानक, व्यवहार के बाजार में स्थापित हो चुके हैं। सही बात, गलत बात, उचित बात, अनुचित, मीठी, नमकीन, खट्टी, कड़वी, तीखी और कसैली वगैरह। परिस्थितियों के अनुसार बात का रंग और शैली बदल दी जाती है। तरक्की ज्यों-ज्यों बढ़ती जा रही है, दुनिया विकास की नई चौड़ी सडकों पर तेजी से दौड़ रही है, मगर बेचारी जिंदगी औंधे मुंह गिर रही है और बात बिगड़ती जा रही है।

बात को अलग-अलग करवटें देकर, तहजीब की गोद में रखकर, करने और समझाने वाले बढ़ते जा रहे हैं। दर्जनों किताबें तो कब से बता रही हैं कि किस तरह के मौके पर बात कैसे की जाए। बातों को घुमा-फिरा कर करना ज्यादा महीन कारीगरी मानी गई है। राजनीतिक और वकील तो बातों में नए नए पेंच घुमाते हुए बरसों निकाल देते हैं, ताकि बात बनती दिखे, लेकिन बने नहीं। इतना तोल-मोल कर बात कहते हैं कि मामले निबटने का नाम नहीं लेते।

जिन कुछ लोगों की, दिल और दिमाग की सच और खरी-खरी बातें जबान पर रहती हैं, वे खुद चाहे संतुष्ट और खुश रहें, लेकिन सुनने वाले दुखी हो जाते हैं। इससे यह बात साबित होती है कि समाज में सही बात अभी तक अपना उचित स्थान प्राप्त नहीं कर सकी। साफ-सुथरी स्पष्ट, लेकिन परेशान बातें सोचने लगी हैं कि क्यों हमें घुमा-फिरा कर नहीं किया गया, करते तो असर कुछ और ही रहता।

बातों के विशेषज्ञ कहते हैं कि जो बात सामने वाला पचा सके, जो शब्द उसे स्वादिष्ट लगे, यानी सामने वाले की शक्ल देखकर ही बातों का टीका किया जाना चाहिए। बातों को व्यवस्था, समय, राजनीतिक और सामाजिक मौसम के हिसाब से उसके सभी कोने घिसकर, रंग कर, पकाकर और सही आकार में काटकर पेश करना चाहिए। बात करते समय होठों पर बिल्कुल नकली मुस्कराहट चिपका लेनी चाहिए। लगभग ऐसा ही इस्तेमाल आंखों का भी करना चाहिए। इस बीच अगर दिल कहे कि तुम गलत कर रहे हो तो उसे अंतर्मन से डांट खिला देनी चाहिए, चुप करो, इस समय दिमाग से काम ले रहा हूं।

बात करते हुए कूटनीतिक बने रहना लाजिमी माना गया है। किसी को इतना ही कहिए, जितना वह समझ सके या जितना समझना उसके लिए जरूरी हो। अपना काम निकालना, करवाना ज्यादा जरूरी और महत्त्वपूर्ण है। करिअर, नौकरी बचाना जरूरी है। इसके लिए उनकी पुरानी कमीज के 'बढ़िया' और 'विरले' शेड की तारीफ भी करनी पड़ सकती है। हो सकता है कि अरुचिकर परिधान की प्रशंसा भी करनी पड़े।

कई बार ऐसे व्यक्ति के गले लग कर 'आपसे मिलकर अच्छा लगा' बोलना होता है, जिससे मिलना आपको परेशान कर दे। बिल्कुल जरूरत भर बात। किसी के साथ अंग्रेजी में बात शुरू करें और उन्हें आपकी खास अंग्रेजी पल्ले न पड़े तो बात को सलीके से सरल हिंदी में समेटने में कोई हर्ज नहीं। बात को संतुलित मसाले और गाढ़ी, अच्छी दिखने वाली सब्जी ही मान लिया जाए तो बात का बतंगड़ बनने से बच सकता है। वैसे अब ज्यादा लोगों से बात करना आवश्यक भी नहीं रह गया है। वाट्सऐप और उसके जैसे ऐप ने कई समस्याएं हल कर दी हैं। वह अलग बात है कि लिखते हुए ज्यादा समझदारी की जरूरत है जो वहां नदारद होती जा रही है।

कई बार अपरिहार्य परिस्थितियां उग आती हैं या बना दी जाती हैं। ऐसे में सामने वाले की सहनशक्ति का अंदाजा लगाना भी जरूरी है। अपशब्दों का प्रयोग करने से बचना हमेशा लाभकारी रहेगा। सख्त बातचीत के मामले में लखनवी अंदाज आज भी काफी मदद कर सकता है। हमें अपनी खुरदरी, थोड़ी बुरी लगने वाली बात कह भी दी और दूसरे को बुरा भी नहीं लगा या कहें कि उन्हें पता नहीं चला। इस सलीके से आपने वक्त को अपने बेहतर अंदाज पर फिदा होने का मौका दिया। हो सकता है बुरा वक्त कल अच्छे वक्त में तब्दील हो जाए।

इसके उलट, बात गलत रास्ते पर निकल पड़े तो अपने स्वभाव के कारण दूर तक चली जाती है और ज्यादा लोग ज्यादा परेशान होने लगते हैं। बात का खयाल रखना बहुत जरूरी होता जा रहा है। बात सिर्फ जुगाड़ नहीं है। बात करने के लिए तकनीक कम, सौम्यता, सरलता, आदर, स्रेह, प्यार, स्वानुशासन और अनुशासन की ज्यादा जरूरत है।

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