सम्पादकीय

बदलता मौसम : औपनिवेशिक सोच से बाहर आएं अमीर देश

Neha Dani
7 Dec 2021 1:50 AM GMT
बदलता मौसम : औपनिवेशिक सोच से बाहर आएं अमीर देश
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नहीं भूलना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिंग से ये अमीर मुल्क भी अछूते नहीं रहेंगे।

बदलते मौसम से हो रही तबाही अब लगभग पूरी दुनिया में कहीं कम, तो कहीं ज्यादा, आमजन को प्रभावित कर रही है। भारत में भी उत्तराखंड के पहाड़ों पर बादलों के फटने, कहीं कम और कहीं ज्यादा वर्षा होने और सूखा और बाढ़ आने तथा धुएं के कारण अस्त-व्यस्त होता जीवन देश के हर व्यक्ति को प्रभावित कर रहा है। बढ़ते समुद्र के स्तर के कारण छोटे द्वीपों पर जीवन संकट में है और पर्यावरण के कारण भी बड़ी मात्रा में विस्थापन बढ़ रहा है। समय रहते यदि चेते नहीं, तो आने वाले कुछ दशकों में यह पृथ्वी रहने योग्य नहीं रहेगी।

इसी चिंता के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में पर्यावरण सम्मेलनों का आयोजन वर्ष 1994 से चल रहा है, जिसे 'युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेशन ऑन क्लाईमेट चेंज' भी कहा जाता है। हालांकि जापान के क्योटो शहर में 2012 में आयोजित पर्यावरण सम्मेलन में एक संधि हुई, जिसे 'क्योटो प्रोटोकॉल' के नाम से जाना जाता है, जिसके अनुसार विभिन्न देशों ने अपनी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए।
'क्योटो प्रोटोकॉल' एक ऐसा आखिरी समझौता था, जिसमें विकसित देशों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की अपनी जिम्मेवारी स्वीकार की थी और अल्प विकसित एवं विकासशील देशों को कुछ समय के लिए इन गैसों के उत्सर्जन को घटाने की जिम्मेवारी से छूट भी दी थी।
2015 के पेरिस के पर्यावरण सम्मेलन के बाद भारत ने पूर्व के अपने रुख में बदलाव करते हुए स्वयं ही गैसों के उत्सर्जन को कम करने का संकल्प लिया था और स्पष्ट किया था कि भारत न केवल अपनी महत्वाकांक्षा पर खरा उतरेगा, बल्कि उन महत्वाकांक्षाओं को और आगे बढ़ाने का कार्य करेगा। भारत ने यह भी स्पष्ट किया था कि विकसित देश उस पर ग्लोबल वार्मिंग का ठीकरा फोड़ने की कोशिश न करें।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो आज दुनिया पिछले 100 वर्षों में जो हुआ, उसका परिणाम भुगत रही है। जहां मौसम परिवर्तन के लिए अमेरिका की जिम्मेवारी 40 प्रतिशत है, यूरोप की 10 प्रतिशत, चीन की 28 प्रतिशत है, वहीं भारत केवल तीन प्रतिशत के लिए ही जिम्मेवार है। भारत ने तब भी यह कहा था कि चीन समेत अमीर मुल्कों की जिम्मेवारी अधिक है।
कोपेनहेगन में गरीब मुल्कों को पर्यावरण संकट से निपटने के लिए 100 अरब डॉलर उपलब्ध कराने का वचन दिया गया था। लेकिन वह राशि कहीं दिखाई नहीं दे रही। पिछले महीने ग्लासगो में संपन्न कॉप-26 के अंतिम दस्तावेज में उस 100 अरब डॉलर की सहायता की बात को तो तूल ही नहीं दिया गया है, बल्कि भारत (और चीन) पर सारा दोष मढ़ने की कोशिश हुई कि वह कोयले के अधिक उपयोग से पर्यावरण बिगाड़ रहा है। जबकि दुनिया के पर्यावरण संकट के लिए अमेरिका, यूरोप और चीन आदि देश मुख्य रूप से जिम्मेवार हैं।
भारत का कहना है कि केवल कोयला ही नहीं, बल्कि अन्य जीवाश्म ईंधन, जैसे पेट्रोलियम और गैस भी उसके लिए उतने ही जिम्मेवार है। कॉप-26 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच बिंदुओं में पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को व्यक्त किया, जिसे पंचामृत नाम दिया गया। उसमें 2030 तक गैर जीवाष्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक बढ़ाना, अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की 50 प्रतिशत की आपूर्ति नवीनीकरण स्त्रोतों से पूर्ण करना, कार्बन उत्सर्जन को एक अरब टन तक घटाना, कार्बन सघनता को 45 प्रतिशत तक घटाना और 2070 तक देश को 'कार्बन न्यूट्रल' बनाना शामिल है।
भारत जैसे विकासशील और अल्पविकसित देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए जो प्रयास करने पड़ेंगे, उसके लिए प्रौद्योगिकी की जरूरत होगी। यह प्रौद्योगिकी विकसित देशों के पास ही उपलब्ध है, जिसे साझा करने के लिए वे भारी कीमत चाहते हैं। यदि धरती को जीवन योग्य रखना है, तो विकसित देशों को अपने संसाधनों और प्रौद्योगिकी को उपलब्ध कराना होगा। अमीर मुल्कों को इस औपनिवेशिक सोच से बाहर आना होगा कि वे कुछ भी कर सकते हैं। नहीं भूलना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिंग से ये अमीर मुल्क भी अछूते नहीं रहेंगे।

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