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वहीं दूसरी लहर में हाहाकार के दौरान ऑक्सीजन की मांग बढ़कर 9,000 मीट्रिक टन के करीब हो गई थी
राजीव दासगुप्ता। राज्यसभा में हाल ही में बताया गया कि कोविड-19 की दूसरी लहर (डेल्टा वेरिएंट के कारण यह आई थी) में राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में ऑक्सीजन की कमी के कारण किसी मरीज की जान नहीं गई। हालांकि, केंद्र सरकार ने यह माना कि दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की मांग में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। पहली लहर की चरम स्थिति में जहां 3,095 मीट्रिक टन ऑक्सीजन की जरूरत पड़ी, वहीं दूसरी लहर में हाहाकार के दौरान ऑक्सीजन की मांग बढ़कर 9,000 मीट्रिक टन के करीब हो गई थी।
सवाल यह है कि क्या दूसरी लहर में भारत के हालात बिल्कुल अलग थे? इंडोनेशिया की दशा आज सच्चाई बयां कर रही है। यह देश फिलहाल उसी दौर से गुजर रहा है, जिससे कुछ हफ्ते पहले हमारे देश के कई शहर जूझ रहे थे। इंडोनेशिया के प्रमुख अखबार जकार्ता पोस्ट के मुताबिक, डेल्टा वेरिएंट के कारण मामलों में आए इस उछाल से इंडोनेशिया में हर दिन 50,000 नए मरीज सामने आ रहे हैं और यहां के स्वास्थ्य तंत्र पर इस कदर बोझ बढ़ गया है कि वह 'ध्वस्त होने के कगार' पर पहुंच चुका है। उसके स्वास्थ्य मंत्री के मुताबिक, रोजाना की ऑक्सीजन-मांग 400 टन से बढ़कर 2,000 टन हो चुकी है। उन्होंने ऑक्सीजन की कमी का बड़ा कारण ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्रों का व्यवस्थित न होना बताया है। दरअसल, वहां ऑक्सीजन उत्पादन के ज्यादातर संयंत्र पश्चिमी जावा और पूर्वी जावा प्रांतों में स्थित हैं, जबकि मध्य जावा के 390 और योग्यकार्ता के 56 अस्पताल अपने मरीजों की ऑक्सीजन-जरूरत के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।
अफ्रीका की सेहत भी इसी तरह से दिनोंदिन बिगड़ रही है। अफ्रीका रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र के अनुसार, वहां के करीब दो दर्जन देशों में संक्रमण में तेज उछाल आया है। अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल लिखता है, युगांडा के सबसे बडे़ अस्पताल की गहन निगरानी इकाई (आईसीयू) में भर्ती हर 30 कोरोना मरीजों में से एक की मौत ऑक्सीजन की कमी से हुई। वहां ऑक्सीजन की मांग में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है, जो 2020 के इसी माह की तुलना में 50 फीसदी अधिक है। इससे वहां मांग के मुताबिक ऑक्सीजन का उत्पादन नहीं हो पा रहा। नए संक्रमण से जूझ रहे वहां के छह देशों के हालात का अध्ययन करके विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी बताया है कि अपनी जरूरत का महज 27 प्रतिशत ऑक्सीजन ही वे उत्पादित कर पा रहे हैं। संगठन के क्षेत्रीय निदेशक की मानें, तो अफ्रीका में तीसरी लहर 'विनाशकारी राह' पर है और अफ्रीकी देशों की सर्वोच्च प्राथमिकता ऑक्सीजन उत्पादन को बढ़ावा देना है।
इसके बरअक्स अपने यहां की तस्वीर देखिए। दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की सर्वाधिक मांग 9,000 मीट्रिक टन थी, और तरल ऑक्सीजन की कमोबेश इतनी ही मात्रा का उत्पादन अपने यहां होता है। कुल उत्पादन में से करीब 10-15 फीसदी ऑक्सीजन अस्पतालों को चिकित्सा-कार्यों के लिए भेजी जाती है, जबकि शेष की आपूर्ति औद्योगिक क्षेत्रों (इस्पात उद्योग इसमें महत्वपूर्ण है) को होती है। चूंकि दूसरी लहर के 'पीक' पर पहुंचते ही कोविड-अस्पताल छह गुना अधिक ऑक्सीजन की मांग करने लगे, इसलिए उनकी मांगों को पूरा करने का मतलब था, औद्योगिक क्षेत्रों को भेजी जाने वाली ऑक्सीजन में 90 फीसदी तक की कटौती करना। लिहाजा, उत्पादन तेजी से बढ़ाया गया और ढुलाई व आवागमन की समस्याओं को दूर करने पर जोर दिया गया। मगर इनमें से कोई काम रातोंरात नहीं हो सकता।
अपने यहां भौगोलिक चुनौती भी कोई छोटी नहीं थी। ऑक्सीजन का उत्पादन कमोबेश पूर्वी भारत में होता है, जहां पर ज्यादातर लोहा और इस्पात उद्योग स्थापित हैं। इन उत्पादन केंद्रों से दूरस्थ राज्यों तक ऑक्सीजन पहुंचाने में अधिकतम नौ से 12 दिनों का समय लग सकता है, क्योंकि यह विशेष क्रायोजेनिक टैंकर से ढोई जाती है, जो माइनस 183 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर ढुलाई करते हैं, ताकि ऑक्सीजन तरल अवस्था में बनी रहे। इन टैंकरों को वापस लौटने में भी समान वक्त लगता है। हालांकि, रेलवे और वायु सेना को इस अभियान में शामिल करने से यह वक्त कम हुआ। तथ्य यह भी है कि पहली लहर के खत्म होने के बाद अक्तूबर, 2020 में जिला अस्पतालों में ऑक्सीजन संयंत्र स्थापित करने के लिए निविदाएं जारी की गई थीं, लेकिन दूसरी लहर की शुरुआत तक उत्पादन में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हो सकी। हालांकि, कुछ अपवाद भी थे, क्योंकि कुछ जिलों में स्थानीय क्षमता बढ़ी थी, और कहीं-कहीं तो जरूरत से अधिक ऑक्सीजन का उत्पादन होने लगा था। लिहाजा सवाल यह है कि आने वाले महीनों के लिए हमारी तैयारी कैसी होनी चाहिए? अन्य देशों का अनुभव यही बताता है कि जहां टीकाकरण की रफ्तार धीमी है और डेल्टा वेरिएंट का प्रसार हुआ है, वहां इन दोनों के 'घातक मिश्रण' ने अस्पतालों पर मरीजों का बोझ बढ़ा दिया। अपने यहां 21 राज्यों के 70 जिलों में आईसीएमआर द्वारा किया गया चौथा राष्ट्रीय सीरो-सर्वे बताता है कि 67.6 फीसदी लोग संक्रमित हो चुके हैं, जिसका अर्थ है कि अगर कोरोना वायरस का अब कोई रूप नहीं बदलता है या यह 'म्यूटेट' नहीं करता है, तो 40 करोड़ लोगों पर अब खतरा है। इस खतरे को जिलेवार समझना होगा और इसके लिए जिला-स्तरीय सीरो-सर्वे की हमें सख्त जरूरत है। 'पैचवर्क वैक्सीनेशन', यानी खास-खास हिस्सों में किया जाने वाला टीकाकरण अभियान हमारे सुरक्षा चक्र को नुकसान पहुंचा सकता है। अत्यधिक टीकाकरण वाले क्षेत्र के नजदीक में यदि कम टीकाकरण वाला इलाका हो, तो फिर वायरस का प्रसार कम टीकाकरण वाले एक इलाके से दूसरे में हो सकता है, जिसके कारण बहुत छोटे-छोटे इलाकों में भी महामारी फैल सकती है। इसके कारण आने वाले दिनों में कम टीकाकरण वाले क्षेत्र संवेदनशील बने रहेंगे, क्योंकि वहां पहले से ही स्वास्थ्य सेवाएं काफी कमजोर हैं। यह एक गंभीर स्थिति हो सकती है, जिससे बचने के लिए हमें बिना कोई वक्त गंवाए अपनी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।

Rani Sahu
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