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- घरेलू हिंसा पर बदले...
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा कि किसी उच्च शिक्षित व्यक्ति का अपने जीवनसाथी की प्रतिष्ठा और करियर को खराब करने की मंशा से मिथ्या आरोपों को गढ़ना, उसे अपूर्णनीय क्षति पहुंचाना मानसिक क्रूरता है। सामाजिक और वैधानिक दोनों ही दृष्टि से यह एक ऐसा फैसला है, जो लैंगिक समानता की खोई हुई उस संभावना को पुनर्स्थापित करता है, जो बीते कुछ दशकों में लैंगिक समानता की खंडित परिभाषा के नीचे कहीं दम तोड़ रही थी। वास्तविकता तो यह है कि लैंगिक समानता का अर्थ सिर्फ महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण मात्र तक सीमित होकर रह गया है, जबकि इसका वास्तविक अर्थ तो बिना किसी जैविक भेद के समान स्तर पर समानता है। इसमें किंचित कोई संदेह नहीं कि आज भी आधी दुनिया जीवन के हर स्तर पर संघर्ष कर रही है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उसे वह स्थान नहीं दिया, जिसकी वह अधिकारिणी है, परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि समानता के इस संघर्ष के बीच एक ऐसी धारा बह निकली, जहां पुरुषों को निरंतर शोषक एवं महिलाओं को शोषित के रूप में चित्रित किया गया। आज जनमानस भी इस तथ्य को स्वीकार कर बैठा है कि स्त्री कभी भी शोषण नहीं कर सकती। क्या वाकई ऐसा मानना तार्किक है, क्योंकि आज तक कोई भी अध्ययन इस बात की पुष्टि नहीं कर पाया है कि पुरुष और स्त्री का शारीरिक विभेद उनके भीतर पनप रही भावनाओं में भी अंतर करता है? सत्य तो यह है कि ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, प्रेम जैसे मानवीय मनोभाव स्त्री और पुरुष में समान रूप से प्रवाहित होते हैं तो सिर्फ पुरुष ही शोषक कैसे हो सकता है?