सम्पादकीय

वित्तीय आचरण बदलें

Rani Sahu
4 July 2023 6:53 PM GMT
वित्तीय आचरण बदलें
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आर्थिक परीक्षाओं में गुजर बसर करने की इच्छा शक्ति से गुजरती हिमाचल सरकार के लिए हर कदम पर चुनौतियां हैं, लेकिन यही इंतखाब है जिसे पूर्ववर्ती सरकारों ने नजरअंदाज किया। हिमाचल में पंजाब पुनर्गठन, पर्वतीय राज्य, वनाधिकार व जलाधिकार इसकी आर्थिक शक्ति को आत्मनिर्भर बनाने के लिए काफी है, लेकिन यही पहलू सबसे अधिक नजरअंदाज हुए। अब जबकि वाटर सेस और शानन विद्युत परियोजना पर हक जताने की बारी आई, तो हिमाचल को याद आया कि यह बंटवारा तो चंडीगढ़ की 7.19 प्रतिशत हिस्सेदारी को भी सुनिश्चित करता है। विडंबना यह रही कि जब हिमाचल में पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र मिल रहे थे, इसे केवल एक भूखंड का स्थानांतरण और सियासी गठजोड़ माना गया, जबकि इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भाषायी, सामाजिक, आर्थिक पहलुओं व अधिकारों को गौण किया जाता रहा। यही विडंबना अब शूल बनकर उभरी है, तो हिमाचल को अपने पांव पर खड़ा होने की शिद्दत से कोशिश हो रही है। यह दुर्भाग्य है कि जब सुक्खू सरकार अपने दम पर प्रदेश की आर्थिक चुनौतियों के समाधान में गतिशील है, तो कहीं विपक्ष इसे राजनीतिक लाचारी में देख रहा है। मानवीय संसाधन के विकास में हिमाचल एक अग्रणी राज्य है, लेकिन इसके बरअक्स आर्थिक संसाधनों का विकास नहीं हो पाया, तो इसलिए क्योंकि हमेशा बेचारगी के आलम में राज्य ने केंद्र से पनाह मांगने की कोशिश की जबकि अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में यथार्थ को नजरअंदाज किया गया।
जिस पर्यावरण के लिए हिमाचल को बंधुआ बनाया गया, उसके एवज में आर्थिक अधिकार किसने मांगे। पौंग-भाखड़ा जैसी बड़ी बांध परियोजनाओं से हिमाचल को हासिल ही क्या हुआ। इसी संदर्भ में शानन विद्युत परियोजना को यह मान लेना कि इस पर पंजाब का कानूनी हक है, हमारी दृष्टि का दोष रहा। आजादी के बाद अगर नए राज्यों का उदय नई संभावनाओं को जन्म दे गया, तो किस पैमाने पर शानन विद्युत परियोजना को पंजाब की संपत्ति मान लिया गया। दरअसल हिमाचल की संकीर्ण राजनीति ने पंजाब पुनर्गठन के बाद राज्य के अस्तित्व को नई आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक पहचान के रूप में विकसित ही नहीं होने दिया। आज तक केवल हिस्से बंटे हैं, जबकि कानूनी हिस्सेदारियों में प्रदेश की भूमिका इक्का दुक्का मामलों में ही सामने आई है। बहरहाल सालों के दोष की दुरुस्ती इतनी भी आसान नहीं कि एकदम सब कुछ सही हो जाए, लेकिन सबसे पहले प्रदेश को सियासत की आंतरिक शुद्धि चाहिए। राजनीतिक तौर पर प्रदेश के असंतुलन पंजाब पुनर्गठन के बाद बढ़े हैं या इनके ऊपर व्यक्तिगत इच्छाएं थोप दी गईं। राज्य का नेतृत्व प्राय: सत्तारूढ़ दलों की केंद्रीय सत्ता ही तय करने लगी है जिसके कारण मुख्यमंत्री का पद भी अपनी किलेबंदी करते देखे गए। प्रदेश को अभी तक राजनीति के बीच स्वतंत्र आर्थिक सलाहकार या वित्त मंत्री नहीं मिले और न ही सरकारों ने अपनी निरंतरता से आर्थिक आत्मनिर्भरता के कदमों को आगे बढ़ाया। कमोबेश हर सरकार ने जनता से ऐसे लोकप्रिय तथा वित्तीय उदारता के समझौते किए जो इसके बूते से बाहर है।
कांग्रेस की अहम गारंटियां प्रदेश को आत्मनिर्भर नहीं बना रहीं, बल्कि इससे आर्थिक व नागरिक दबाव ही बढ़ रहे हैं। भले ही सुक्खू सरकार ने इस दिशा में कड़े संदेश और आर्थिक नवाचार का पैगाम दिया है, लेकिन आर्थिक ढांचे की जिम्मेदारी विपक्ष से नागरिक समाज तक है। इसी दृष्टि से हिमाचल भवन के बाद सामान्य डाक बंगलों के कमरों का दैनिक किराया पांच सौ व सर्किट हाउस में छह सौ रुपया किया जा रहा है। यह देखने में छोटा सा प्रयोग दिखाई देता है, लेकिन यह वित्तीय आचरण बदलने का कारक हो सकता है। आश्चर्य तो यह है कि पिछले कुछ सालों में रेस्ट हाउस निर्माण केवल राजनीतिक शानो-शौकत के लिए हुआ और करीब दो हजार ऐसी संपत्तियों की वार्षिक देखभाल पर ही करोड़ों निकल जाते हैं। भले ही किराए की दृष्टि से उपाय ढूंढा गया, लेकिन इनके औचित्य, प्रबंधन और भविष्य की परिकल्पना बहुत कुछ करना बाकी है। हर विभाग द्वारा खड़े किए गए डाक बंगलों के स्थान पर महत्त्वपूर्ण शहरों में एक संयुक्त रेस्ट हाउस की परिकल्पना में दस, पच्चीस, पचास या सौ कमरों की इकाइयां स्थापित करके इनका संचालन पर्यटन विकास निगम के हाथों में दिया जाए। ऐसी इमारतों के निर्माण एवं प्रबंधन के लिए पीपीपी मोड भी अपनाया जा सकता है या पढ़े-लिखे युवाओं को स्वरोजगार के तहत सरकारी कर्मचारियों की आवासीय व्यवस्था एवं डाक बंगलों को आउटसोर्स किया जा सकता है। राज्य की नई आय के स्रोत पैदा करने से पहले फिजूलखर्चियों पर नकेल आवश्यक है और अगर इसके साथ पक्ष-प्रतिपक्ष एवं जनता एक साथ आए तो वित्तीय खानाखराबी का वर्तमान आलम तो रुकेगा।

By: divyahimachal

Rani Sahu

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