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By: divyahimachal
सिफ्ट कौर सामरा 50 मीटर राइफल की निशानेबाजी की नई एशियाई चैम्पियन बनी हैं, लेकिन वह विश्व चैम्पियन भी हैं, क्योंकि उन्होंने एक साथ विश्व रिकॉर्ड और एशियन रिकॉर्ड स्थापित कर स्वर्ण पदक जीता है। उन्होंने 469.6 अंक हासिल कर विश्व कीर्तिमान रचा है। 1986 में सोमा दत्ता ने इसी 3 पोजिशन में, सियोल एशियन खेलों में, रजत पदक जीता था, लिहाजा ऐसी कामयाबी वाली, सभी वर्गों में, वह भारत की प्रथम निशानेबाज हैं। सिफ्ट ने टीम स्पर्धा में भी रजत पदक हासिल किया है। हांगझोउ एशियन खेलों का चौथा दिन, भारत के लिहाज से, बेहद खुशगवार रहा। पदकों की खूब बौछार हुई। सिफ्ट के अलावा ईशा सिंह, मनु भाकर, रिद्म सांगवान की तिकड़ी ने भी 25 मीटर पिस्टल की टीम स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता। आशी सिंह, माणिनी सरीखी पदकवीर बेटियों का नाम भी विजेताओं की श्रेणी में रखा जाएगा। भारत की इन सामान्य-सी बेटियों ने आसमान छूकर ‘मां भारती’ को सम्मानित किया है और खुद को ‘असाधारण’ साबित किया है। एशियन खेल या राष्ट्रमंडल खेलों के मुकाबले हों अथवा विश्व चैंपियनशिप, ओलंपिक के मैदान हों, खेलों में प्रतिद्वंद्विता गला-काट होती है। एक-एक अंक के लिए जद्दोजहद की जाती है। भारत की बेटी सिफ्ट ने, 7.3 अंकों के फासले से, चीनी खिलाड़ी को मात देकर विश्व कीर्तिमान अपने नाम किया है।
ब्रिटेन के नाम पुराने कीर्तिमान को पोंछ दिया है। यकीनन यह गगनचुंबी सफलता और उपलब्धि है। गौरतलब तो यह है कि फरीदकोट (पंजाब) के एक किसान घर और चावल का कारोबार करने वाले परिवार की बेटी सिफ्ट की प्राथमिकता निशानेबाजी नहीं थी। वह एमबीबीएस की छात्रा है। जाहिर है कि ‘डॉक्टर साहिबा’ बनने की राह पर हैं, लिहाजा सिफ्ट खुद को ‘आकस्मिक निशानेबाज’ मानती हैं। मेडिकल से मेडल तक की यात्रा 22 वर्षीय बेटी के लिए बड़ी असमंजस भरी रही होगी, लेकिन सिफ्ट ने माता-पिता की सलाह पर ‘निशानेबाज’ बनना तय किया। आज वह जिस मुकाम पर हैं, खुद इतिहास लिख रही हैं। 25 मीटर पिस्टल की रजत पदक विजेता ईशा सिंह को हरेक गोली की आवाज ‘संगीत का सुर’ लगती है। मनु भाकर एक विख्यात नाम है, लेकिन वह टोक्यो ओलंपिक समेत कुछ प्रतियोगिताओं में असफल रही थीं, लेकिन इस बार गले में ‘पीला तमगा’ पहन कर, ऊपर उठते ‘तिरंगे’ को देखते हुए, राष्ट्रगान सुनकर प्रसन्न होंगी। दरअसल खेल की दुनिया में ऐसी बेटियों का भी सार्वजनिक उल्लेख निरंतर किया जाना चाहिए, उन्हें सुर्खियों में छापा जाना चाहिए, वे हाशिए का चेहरा नहीं हैं, क्योंकि एक खिलाड़ी के तौर पर वे भी ‘चैम्पियन’ बनती हैं। आज मणिपुर के हालात पूरे देश के सामने हैं। रोशिबिना के मानस और मन में भी हिंसा और अशांति की अनगिनत छवियां अंकित रही होंगी, लेकिन वह वुशु खेल के फाइनल तक पहुंची। आप जब यह आलेख पढ़ रहे होंगे, तो एक और बेटी भारत के लिए कमोबेश रजत पदक जीत चुकी होगी! 2010 में संध्यारानी देवी की ऐसी सफलता के बाद रोशिबिना दूसरी महिला भारतीय खिलाड़ी हैं।
विश्व चैम्पियन मुक्केबाज निकहत •ारीन भी अपने भार-वर्ग में ताकतवर मुक्के बरसाती हुई क्वार्टर फाइनल में पहुंच चुकी हैं। वह भी पदक की एक पुख्ता उम्मीद हैं। लड़कियों की हॉकी ने जिस तरह का खेल दिखाया है और सिंगापुर की टीम को 13-0 से कुचल दिया है, वे भी पदक की सशक्त उम्मीद हैं। सिफ्ट का निशानेबाजी के प्रति समर्पण देखा जा सकता है कि उन्होंने निशानेबाजी को पूरा वक्त देने के लिए ‘डॉक्टरी’ की पढ़ाई छोड़ दी है। अब वह ‘बेचलर ऑफ फीजिकल एजुकेशन एंड स्पोट्र्स’ की पढ़ाई गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर से कर रही हैं। यह फैसला उनका और माता-पिता का साझा फैसला है। बाद में सिफ्ट आईएएस बनना चाहती हंै, लेकिन फिलहाल वह निशानेबाजी को समर्पित हैं और कुछ विश्वस्तरीय जीत हासिल करना चाहती हैं। बहरहाल भारत में प्रतिभाओं का भंडार है, लेकिन सरकार सभी की पर्याप्त मदद करे और उन्हें पदक के मंच तक पहुंचाने में भूमिका अदा करे। शाबाश बेटियो! जिंदाबाद! भारत को अपना खेल ढांचा सुदृढ़ करने की जरूरत है। विकसित देशों की तुलना में भारत में खिलाडिय़ों को बेहतर सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। प्राय: प्रशिक्षण में कमी के चलते भारतीय खिलाड़ी विश्व स्तर पर कड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण पिछड़ जाते हैं। अगर भारतीय खिलाडिय़ों को वैश्विक स्तर की सुविधाएं मिल जाएं तो वे कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं और भारत का खेल प्रदर्शन भी सुधर जाएगा। वर्तमान केंद्र सरकार को इस मसले की ओर ध्यान देने की जरूरत है।

Rani Sahu
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