सम्पादकीय

गिरगिट का संसदीय होना

Rani Sahu
24 July 2022 7:00 PM GMT
गिरगिट का संसदीय होना
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यह गिरगिट सदन के बाहर आकर अटक गया है। आज तक इसकी पुश्तों ने रंग बदलने से पहले यह कभी नहीं सोचा, किसे देखकर बदला जाए या किसे देखकर नार्मल रहे

यह गिरगिट सदन के बाहर आकर अटक गया है। आज तक इसकी पुश्तों ने रंग बदलने से पहले यह कभी नहीं सोचा, किसे देखकर बदला जाए या किसे देखकर नार्मल रहे, लेकिन अब यह असमंजस में है। दरअसल इसे अब यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि भारत में नार्मल हालात का रंग कैसा है। जिसे वह अब तक सामान्य हालात मानता था, उसका भी रंग बदल चुका है। मुश्किल उसके लिए यह भी है कि अब देश के नागरिक को देखकर यह पता नहीं चलता कि वह कभी सामान्य होगा भी या नहीं। वह इससे पहले भी सदन में आता-जाता रहा है, लेकिन किसी तरह की सतर्कता उसे पकड़ नहीं सकी। वह मजमून देखकर सत्ता, विपक्ष के पाले में चला जाता और अब तो मीडिया की गैलरी में भी उसे कोई फर्क नहीं दिखाई देता। यह दीगर है कि जब से संसदीय भाषा ने उसके नाम को अछूत बना दिया है, सदन का कोई भी सदस्य उसके रंग पर गौर नहीं करता। धीरे-धीरे उसने सदन के भीतर एक गिरगिट कालोनी बना ली है।

ये तमाम गिरगिट अब संसदीय भाषा के कारण अपना गोत्र बदल रहे हैं। वे कभी-कभी गुंडागर्दी कर लेते हैं, लेकिन सदन की दीवारों में इतना दम नहीं रहा कि ये गुंडे को गुंडा कह सकें। गिरगिट को देखकर भी सदन का कोई सदस्य उसे नाम से नहीं पुकार सकता, लिहाजा कई अराजक गिरगिट सदन के भीतर सुरक्षित हो गए हैं। इनमें से कई तो शकुनि, जयचंद और तानाशाह की तरह व्यवहार करने लगे हैं, लेकिन इस गदर के खिलाफ भी सदन मौन है। जब से पूरा सदन संसदीय हो गया, तब से गिरगिट ही यह ढिंढोरा पीट रहा है कि अब सबसे बड़ी नौटंकी केवल भीतर हो रही है। अब सदन की शालीनता में गिरगिट अपने लिए बहुमत ढूंढने लगा ताकि कहीं उसकी जमात अल्पसंख्यक न हो जाए। पहली बार गिरगिट को सदन की वजह से अपनी प्रजाति के गुम होने का खतरा पैदा हो रहा था, तो उसने अपनी बिरादरी को बाल बुद्धि से बाहर निकल कर एकजुट होने का नारा दिया। कुछ गिरगिट एक होने के लिए हरसंभव प्रयास कर भी रहे थे कि वह काला दिन सामने आ गया जब एक-दूसरे धड़े ने खरीद-फरोख्त करके उसके कुछ साथी अपने में मिला लिए।
गिरगिट पूरी तरह और नैतिक भाव से अपनी प्रजाति बचाना चाहता है, लेकिन कुछ दलबदलू गिरगिट आंखों में मगरमच्छ के आंसू भर कर अलहदा हो गए। यह गिरगिट मानता है कि किसी के अहंकार, असत्य, दोहरे चरित्र, लॉलीपॉप, विश्वासघात, संवेदनहीनता और भ्रष्टाचार ने उसके कुनबे से अधिकांश गिरगिट छीन लिए हैं, लेकिन सदन के भीतर वह कुछ कर भी तो नहीं सकता। वह जिस सदन में सरकार के खिलाफ विपक्ष को खुलकर बोलते सुनता था, वह आज खामोश है। वह सोचने लगा क्या संसदीय होना इतना बुरा होता है कि इनसान की बात केवल इशारों में ही होगी। वहां सत्ता पक्ष अपनी सुना रहा था, बिल्कुल संसदीय तरीके से और विपक्ष चुप बैठा था संसदीय तरीके से। यह देखकर गिरगिट से नहीं रहा गया। वह सदन से भाग खड़ा हुआ और अपने तरीके से रंग बदलने लगा, लेकिन भागते हुए उसके कुछ रंग पीछे छूट गए थे। पहली बार गिरगिट ने एक ही रंग में रहने की वजह ढूंढ ली थी, क्योंकि संसदीय दिखाई देने के लिए तो अब बहुरंगी नागरिक समाज भी तो नहीं रहा।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal


Rani Sahu

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