- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- चलता फिरता प्रेत: मानव...
मनीष पांडेय | 'चलता फिरता प्रेत' अभिनेता और रचनाकार मानव कौल की कहानियों का संग्रह है। यह दिलचस्प है कि अपने अकेलेपन और उदासी को लेखक एक स्वगत संवाद की लड़ियों की तरह इन कहानियों में रखते हैं। दूर तक चुपचाप बिना किसी से कुछ बोले, अकेले ही चलते चले जाने की प्रक्रिया, जिसमें अवसाद कुछ गाढ़ा अवसाद बन जाए। मौन और कुछ बोल देने के बीच फैली हुई जगह में अपनी छूटी हुई ढेरों चीजों को इकट्ठा करने की कोशिश... एक कोई फ्रेम इस तरह से पकड़ना कि दूसरे का सिरा भी हाथ में रह जाने का भ्रम पैदा करे। 'ब्लू रेनकोट' कहानी में इस स्थिति को एक जगह देखा जा सकता है- 'मैं उपन्यास लिखना चाह रहा था, पर वह नहीं हुआ और फिर...' मैं चुप हो गया। 'लिखना नाखून हैं, अंगळ्लियां हैं या किसी-किसी के लिए पूरे हाथ हैं। बस! जीना पूरा शरीर है, उसे मत भूलना, पर मुझे लगता है कि मैं जो जी रहा हूं, वह जी नहीं रहा उसे लिख रहा हूं।' जाहिर है इन कहानियों को कहीं पहुंचने की जल्दी नहीं है। यहां तक कि अपने अंत तक आकर उसका परिणाम जानने में भी दिलचस्पी नहीं। कोई अज्ञात सा भय है या जिज्ञासा... कह नहीं सकते, मगर कहानीकार का अंतर्मन उसके अगल-बगल जैसे मकड़ी के जाले सा कोई उधेड़बुन करता है। मृत्यु के पास बैठकर शांति से अपने पिछले सारे दौर को उदासी से देखने का विस्मय से भरा मनोभाव। हर कहानी का इशारा किसी तरह अंत को तिरोहित करने में सुकून पाता है। फिर वह 'घोड़ा' हो, 'पिता या पुत्र', हर जगह भाषा में बनती ये अर्थछवियां देखी जा सकती हैं। इस स्थिति को 'पिता और पुत्र' कहानी में पकड़ना चाहिए- 'भीतर नींद नहीं आती है, सो बाहर आ जाता हूं और बाहर आते ही लगता है कि यहां क्यों आ गया? जो भीतर है, वही बाहर है। कोई अंतर नहीं है। वहां वक्त का रेंगना सुनाई देता है और यहां वक्त फैला पड़ा है और दिखाई देता है। भीतर दीवारें ताकता हूं और यहां जमीन पर पड़े रोशनी के टुकड़ों को।'