सम्पादकीय

रेल प्रबंधन सेवा की चुनौतियां

Subhi
4 March 2022 3:44 AM GMT
रेल प्रबंधन सेवा की चुनौतियां
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राजनीतिक दखलअंदाजी, तैनाती-तबादले में जाति, क्षेत्र पर आधारित सिफारिशों पर जब तक कड़ाई से अंकुश नहीं लगेगा, तब तक सिर्फ नाम बदलने से रेलवे का उद्धार नहीं होने वाला।

प्रेमपाल शर्मा: राजनीतिक दखलअंदाजी, तैनाती-तबादले में जाति, क्षेत्र पर आधारित सिफारिशों पर जब तक कड़ाई से अंकुश नहीं लगेगा, तब तक सिर्फ नाम बदलने से रेलवे का उद्धार नहीं होने वाला। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तरफ देश का हर मेधावी नौजवान देखता है। आयोग निश्चित रूप से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करता है, लेकिन अगर हम चाहते हैं कि राष्ट्रीय आकांक्षा के अनुरूप उनका भरपूर उपयोग हो, तो इन चुनौतियों से निपटना ही होगा।

नीति आयोग ने सभी रेलवे विभागों को मिला कर एक नई भारतीय रेल प्रबंधन सेवा के गठन की अधिसूचना जारी कर दी है। यों इसका निर्णय दो साल पहले ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ले लिया था, लेकिन बंदी की वजह से मामला लटका रहा। वर्ष 2020-21 में संघ लोक सेवा आयोग ने रेल मंत्रालय के लिए इसीलिए कोई भर्ती नहीं की। पूरे देश की युवा पीढ़ी, जो रेलवे को एक बेहतर करिअर के रूप में देखती है, उसे निराशा हुई। अब संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सेवा परीक्षा 2022 में इंडियन रेलवे मैनेजमेंट सर्विस यानी भारतीय रेलवे प्रबंधन सेवा के डेढ़ सौ पदों को भी शामिल कर लिया है।

एकीकृत रेल कैडर की जरूरत पिछले तीन दशक से महसूस की जा रही थी। 1994 में प्रकाश टंडन समिति ने सबसे पहले बहुत विस्तार से सभी विभागों को मिला कर एक सेवा की जरूरत रेखांकित की थी, लेकिन उन्होंने भर्ती प्रक्रिया को यूपीएससी के मौजूदा ढांचे में जारी रखते हुए बीस वर्षों के सेवा अनुभव के बाद उन्हें एक कैडर के अंदर समायोजित करने के लिए कहा था। इसकी और पेचीदगियों को सुलझाने के लिए यूपीएससी के तत्कालीन अध्यक्ष जेपी गुप्ता और भारत सरकार के सचिव रहे प्रकाश नारायण की समिति ने भी विचार किया था। मगर यह मसला बहुत पेचीदा होने के कारण संभव नहीं हो पाया। संसद में भी एक प्रश्न के उत्तर में असमर्थता जताई गई थी।

2014 में नई सरकार आने के बाद विवेक देवराय समिति ने इसकी वकालत की और उन्होंने भर्ती की मौजूद प्रक्रिया को जारी रखते हुए सिविल सेवा परीक्षा से चुने गए अभ्यर्थियों के लिए लाजिस्टिक सर्विस और इंजीनियरिंग परीक्षा से चुने गए अधिकारियों के लिए तकनीकी सेवा का प्रारूप बताया। इस बीच वर्ष 1999 में रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे राकेश मोहन की अगुआई वाली समिति ने भी रेलवे के अंदरूनी विभागीय खींचतान और अपनी-अपनी गुफाओं में कैद संकीर्ण मानसिकता को रेलवे की मौजूदा दुर्दशा के लिए जिम्मेदार मानते हुए ऐसे कदम उठाने को कहा था। मगर इस सब पर निर्णय अब हो सका है।

मगर प्रश्न है कि क्या एक अलग प्रबंधन सेवा नाम रखने से रेलवे जैसे विशाल, जटिल संगठन की समस्याएं हल हो जाएंगी? निश्चित रूप से विभागीय अहंकार और श्रेष्ठता बोध से इक्कीसवीं सदी के संगठन नहीं चलाए जा सकते, लेकिन क्या इतनी जल्दबाजी में उठाया गया कदम नुकसानदेह तो नहीं साबित होगा?

रेलवे मूलत: एक तकनीकी संगठन है, जिसमें देश के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर यूपीएससी की इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा के टापर्स लिए जाते हैं। पांच विभागों- सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल, सिग्नल और स्टोर विभाग में। वैसे ही सिविल सेवा परीक्षा से ट्रैफिक, अकाउंट, कार्मिक कैडर में। दोनों परीक्षाओं के पाठ्यक्रम, उम्र सीमा, साक्षात्कार के अलग-अलग ढांचे हैं और इन्हें पिछले लगभग सौ वर्षों में हर बार और बेहतर बनाया गया है।

अब अगर सिर्फ एक परीक्षा से दोनों किस्म के सर्वश्रेष्ठ प्रबंधक चाहिए तो यह इतना आसान काम नहीं है। कश्मीर में रेल बिछाने के लिए हमें इंजीनियरिंग की बारीकियों को समझने वाला सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर चाहिए। वैसे ही किसी नदी पर पुल बनाने के लिए या रेल के इंजन की खराबी के लिए कोई उतना ही ज्ञानी मैकेनिकल इंजीनियर। मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सामाजिक विज्ञान, इतिहास, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान पढ़ने वाले छात्र रेलवे के लिए कम उपयुक्त हैं। लेकिन एक परीक्षा से यह संभव नहीं हो पाएगा।

क्या एक सर्वश्रेष्ठ जीव विज्ञानी, विपणन प्रबंधक, भूगर्भ शास्त्री या सिविल मैकेनिकल इंजीनियर को केवल एक सामान्य परीक्षा से भर्ती करना संभव है? क्या यह उम्मीदवार और भर्ती प्रक्रिया या पूरी शिक्षा-व्यवस्था का ही मजाक नहीं होगा? अलोकतांत्रिक तो होगा ही, यूपीएससी पर भी अतिरिक्त बोझ होगा। कितना अच्छा हो, अगर रेल प्रबंधन सेवा तो बने, लेकिन भर्ती मौजूदा परीक्षाओं से ही होती रहे। इससे पहले लगभग सभी समितियों ने ऐसा ही विचार दिया है। फिर मुकम्मल विचार यह बना कि पंद्रह साल के बाद जो तकनीकी महकमे में रहना चाहते हैं और उनकी ऐसी योग्यता है, तो उनको उस दिशा में आगे बढ़ने का मौका दिया जाए और दूसरे जो पत्रकारिता या सामान्य कामकाज के लिए उपयुक्त पाए जाएं उनको उस दिशा में।

शायद यही रास्ता भारतीय रेल चुने तो अच्छा रहेगा। उम्मीद है कि ऐसा ही यह सरकार करेगी। एक और गंभीर प्रश्न पैदा होता है कि अगर अलग परीक्षा होती है, तो उसका पाठ्यक्रम क्या होगा? परीक्षा देने वालों की माध्यम भाषा क्या होगी, क्योंकि कोठारी रिपोर्ट, जो सिविल सेवा में वर्ष 1979 से लागू हुई, उसमें सभी भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने का प्रावधान है। हालांकि इंजीनियरिंग सेवा आदि में भारतीय भाषाओं की छूट अब भी नहीं है। यह प्रश्न भी एक नए विवाद को जन्म दे सकता है।

भर्ती की नई योजना में न्यूनतम और अधिकतम उम्र की सीमा क्या होगी? क्या यह भी सिविल सेवा परीक्षा की तरह सामान्य अभ्यर्थियों के लिए बत्तीस और आरक्षित पदों के लिए सैंतीस साल होगी? पिछले बीस वर्षों में लगातार भारत सरकार द्वारा नियुक्त कई समितियों ने उम्र की सीमा तुरंत कम करने की सिफारिश की है, जिससे कम उम्र के नौजवान इन उच्च सेवाओं में शामिल होंगे तो उन्हें बेहतर ढंग से विभाग के ढांचे में अनुकूलित किया जा सकता है और उनकी क्षमताओं का भी बेहतर इस्तेमाल होगा।

भारतीय प्रशासनिक सेवा को ब्रिटिश शासन से ली गई इंडियन सिविल सर्विस के समकक्ष रखा जाता है। उसमें अधिकतम उम्र शुरू में उन्नीस, फिर इक्कीस, बाईस और चौबीस वर्ष तक रखी गई थी और यह आजादी के बाद भी लगातार जारी रही। पहली बार 1979 में कोठारी समिति ने दूरदराज के गांव में साक्षरता की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए अधिकतम उम्र सीमा छब्बीस से अट्ठाईस साल की थी। लेकिन चालीस वर्ष बाद शिक्षा और साक्षरता की स्थितियां कई गुना बेहतर हुई हैं। मगर आश्चर्य की बात है कि उम्र कम करने की बजाय राजनीतिक दबाव में बार-बार बढ़ाई जाती रही है। अगर सचमुच सक्षम प्रबंधक चाहिए, तो इस सरकार को गंभीरता से इस प्रश्न पर विचार करना होगा।

हमारी संसदीय प्रणाली में कानून मंत्रालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गुजर कर ही ऐसी सेवाओं के भर्ती नियम बनाना संभव हो पाता है। बदलती आधुनिक तकनीक से लेकर प्रबंधन के नए-नए विकल्पों को देखते हुए भी परीक्षा का पाठ्यक्रम बनाना उतना ही चुनौतीपूर्ण होगा और जल्दबाजी में इससे नुकसान हो सकता है।

इससे कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है इन अधिकारियों की प्रशिक्षण प्रक्रिया। इनके प्रशिक्षण की कोई अलग से योजना अभी तक सामने नहीं आई है। अगर प्रशिक्षण मौजूदा रंग-ढंग में दिया जाता रहा, तो यह बिल्कुल वैसा ही होगा कि आपने आर्गेनिक सब्जी तो उगाई, लेकिन तेल मसाले ऐसे डाले और पकाए कि उसका कुछ अंजाम हासिल नहीं हुआ।

राजनीतिक दखलअंदाजी, तैनाती-तबादले में जाति, क्षेत्र पर आधारित सिफारिशों पर जब तक कड़ाई से अंकुश नहीं लगेगा, तब तक सिर्फ नाम बदलने से रेलवे का उद्धार नहीं होने वाला। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तरफ देश का हर मेधावी नौजवान देखता है। आयोग निश्चित रूप से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करता है, लेकिन अगर हम चाहते हैं कि राष्ट्रीय आकांक्षा के अनुरूप उनका भरपूर उपयोग हो, तो इन चुनौतियों से निपटना ही होगा। केवल भारतीय रेल नहीं, देश के ज्यादातर विभाग ऐसी ही उथल-पुथल से गुजर रहे हैं। दृढ़ इच्छाशक्ति, लेकिन विचार के स्तर पर कुछ लचीलापन से समस्याओं का बेहतर समाधान निकाला जा सकता है।


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