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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की पहल पर दो दिवसीय वर्चुअल समिट फॉर डेमोक्रेसी ऐसे समय हुई, जब पूरी दुनिया में लोकतंत्र की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की पहल पर दो दिवसीय वर्चुअल समिट फॉर डेमोक्रेसी ऐसे समय हुई, जब पूरी दुनिया में लोकतंत्र की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है। बाइडन ने समिट की शुरुआत करते हुए बताया कि यह लगातार 15वां वर्ष है, जब वैश्विक स्तर पर नागरिक स्वतंत्रता पर पाबंदियां बढ़ी हैं। यही नहीं, पिछले एक दशक के दौरान लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले आधे से ज्यादा देशों में लोकतंत्र बाधित हुआ है। वैसे, अन्य देशों की क्या बात की जाए खुद अमेरिका में भी लोकतंत्र गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है।
राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे घोषित हुए एक साल से ज्यादा हो चुका है, लेकिन ट्रंप समर्थकों की बड़ी संख्या ऐसी है, जिसने अब तक चुनाव परिणामों को स्वीकार नहीं किया है। अपने आसपास की बात करें तो पड़ोसी देश म्यांमार में निर्वाचित सरकार को इसी साल फरवरी में सेना ने ताकत के जोर से उखाड़ फेंका। जिन देशों में लोकतंत्र कायम है, वहां भी लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार विभिन्न उपायों से कम किए जाने की शिकायतें मिल रही हैं।
ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि इस पहल के जरिए करीब 80 लोकतांत्रिक देशों के नेता एक मंच पर आए। इस मौके पर यह फर्क भी किसी की नजरों से छुपा नहीं रह सका कि लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद पाकिस्तान इस आयोजन से गायब रहा, जबकि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रभावी ढंग से शिरकत करते नजर आए। माना जा रहा है कि चीन की संभावित नाराजगी से बचने के कारण पाकिस्तान इसमें शामिल नहीं हुआ। चीन और रूस दो ऐसे प्रमुख देश रहे, जिन्हें इस समिट में आमंत्रित नहीं किया गया।
चीन एकदलीय व्यवस्था वाला कम्युनिस्ट देश है, जहां शी चिनफिंग मनचाही अवधि के लिए राष्ट्रपति पद पर कब्जा कर चुके हैं, जहां शिन्च्यांग में उइगुरों का दमन किया जा रहा है। रूस में पूतिन पर विपक्षी नेताओं को दबाने और चुनावों में धांधली करने के आरोप लगते रहे हैं। ये दोनों ही देश इस आयोजन से क्षुब्ध हैं। दोनों देशों के वॉशिंग्टन स्थित राजदूतों ने संयुक्त बयान जारी कर जहां अपने-अपने देशों की तानाशाही व्यवस्था को अलग तरह का लोकतांत्रिक मॉडल बताया, वहीं 'शीत युद्ध के दौर वाली मानसिकता' अपनाने के लिए अमेरिका की तीखी आलोचना की।
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