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जिम्मेदारी और जवाबदेही आचार नीति के अभिन्न अंग हैं जिसकी कई स्तरों पर आवश्यकता पड़ती रहती है। इसी में से एक है आदर्श चुनाव आचार संहिता जिसमें इस बात की गुंजाइश रहती है कि इसके होते हुए चुनाव पारदर्शी और निष्पक्ष रूप से हो सकते हैं। बीते साढ़े सात दशकों से देश में चुनाव की परंपरा कायम है जो लोकतंत्र का महोत्सव है। समय के उतार-चढ़ाव और बदलते राजनीतिक रंग-ढंग को देखते हुए 1960 में ऐसे नियम की आवश्यकता महसूस की गई जो निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए उत्तरदायी हो, तब आदर्श चुनाव आचार संहिता राजनीतिक दलों की सहमति से अस्तित्व में आई। आरंभिक दौर में इसमें यह तय था कि क्या करें और क्या न करें, मगर समय के साथ इसका दायरा भी बढ़ता गया।गौरतलब है कि चुनाव अधिसूचना जारी होते ही आचार संहिता प्रभावी हो जाती है जिसमें इस बात की गारंटी रहती है कि चुनाव पारदर्शी और बिना किसी भेदभाव के होगा। चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित नियमों का बाकायदा अनुपालन होगा और राजनीतिक दल एक साफ-सुथरे आचरण का परिचय देंगे। हालिया परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि चुनाव आचार संहिता को लेकर राजनीतिक दलों ने इसके प्रति एक सामान्य धारणा ही बना रखी है। हर हाल में चुनावी जीत की चाह में आचरण का यह सिद्धांत कैसे छिन्न-भिन्न किया जाता है, यह किसी से छिपा नहीं है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा समेत मणिपुर विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। जाहिर है आदर्श चुनाव आचार संहिता भी यहीं से साथ हो चला और यहीं से इसके उल्लंघन की यात्रा भी शुरू हो गई जिसकी बानगी उत्तराखंड में देखने को मिलती है। यहां सरकार पर यह आरोप लगाया गया कि उसने आचार संहिता का जमकर उल्लंघन किया है। विरोधियों का आरोप है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद सैकड़ों आदेश सरकार द्वारा जारी किए गए जो इसका उल्लंघन है। हालांकि इसका न्यायोचित दृष्टिकोण क्या होगा इसे तय करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है।
राजनीतिक दलों का नैतिक दायित्व आचार संहिता का पालन करना और लोकतंत्र के भीतर एक साफ-सुथरी छवि बनाए रखने के साथ निष्पक्ष चुनाव में अपना योगदान देना है। मगर सैद्धांतिक रूप से यह जितना आदर्श से युक्त है, व्यवहार में इसका अनुपालन कम ही होता दिखाई देता है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, बाहुबल और धनबल के रसूख से भरे चुनावी अभियान में राजनीतिक दल अपनी छवि को लेकर कितने चिंतित रहते हैं इसकी बानगी आए दिन देखने को मिलती रहती है। चुनाव आचार संहिता चुनावी मौसम में कई चुनौतियों से जूझती है, इसकी शिकायत भी चुनाव आयोग के पास बड़े पैमाने पर पहुंचती रहती है जिसे लेकर आयोग प्रभावी कदम उठाता रहा है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के बीच निर्वाचन आयोग की चर्चा है। लोकसभा और विधानसभा का चुनाव कराना आयोग की जिम्मेदारी है। साथ ही इसमें निष्पक्षता कायम रहे इसे तय करना भी उसकी कसौटी में है। मगर यह तभी पूरी हो सकती है, जब राजनीतिक दल और चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी इसकी गरिमा को समझेंगे।
देश के स्वाधीन होने के बाद दो लोकसभा चुनावों तक आचार संहिता नहीं बनाई गई थी। वर्ष 1962 के लोकसभा के चुनाव में आचार संहिता का पहली बार पालन किया गया, जबकि 1960 में केरल विधानसभा चुनाव में इसे पहली बार अपनाया गया था। समय के साथ राजनीतिक दलों का विकास और विस्तार हुआ। सरकार बनाने की महत्वाकांक्षा के चलते इनके मूल्यों में गिरावट भी जगह लेने लगी। नतीजन आचार संहिता को मजबूती से लागू करना देखा जा सकता है।
बानगी के तौर पर आचार संहिता के कुछ प्रमुख बिंदुओं को उकेरा जा सकता है। चुनाव अधिसूचना जारी होने के बाद सत्तारूढ़ दल कोई ऐसी घोषणा न करे जिससे मतदाता प्रभावित होते हों मसलन अनुदान की घोषणा, परियोजनाओं का प्रारंभ और कोई नीतिगत घोषणा। दरअसल प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंद्वी की आलोचना व्यक्तिगत अथवा चारित्रिक आधार पर न करे, धार्मिक तथा जातीय उन्माद बढ़ाने वाले वक्तव्य न दे, मतदाताओं को किसी प्रकार का प्रलोभन (शराब, पैसा) देने से मनाही हो। इसके अलावा भी दर्जनों आयाम इससे जुड़े देखे जा सकते हैं। मौजूदा स्थिति कोरोना काल की है और पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव संपन्न होने हैं। यहां चुनाव आयोग ने स्पष्ट रेखा खींचते हुए दलों को बता दिया है कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है। आचार संहिता के उल्लंघन की स्थिति में इसके प्रचार पर रोक लगाई जा सकती है। प्रत्याशी के खिलाफ आपराधिक मुकदमा भी दर्ज किया जा सकता है। इतना ही नहीं, इसमें जेल जाने का प्रविधान भी है। गौरतलब है कि यह दौर इंटरनेट मीडिया का है। चुनाव प्रचार के लिए यह सब तक पहुंच वाला एक आसान प्लेटफार्म है। इस बार का चुनाव कोरोना के चलते कई तरह की पाबंदियों में है जिसमें चुनावी रैली और भीड़ जुटाने जैसी स्थिति पर चुनाव आयोग ने रोक लगाई है। हालांकि इसकी सीमा निर्धारित है, लेकिन इसमें कितनी ढील दी जाएगी यह चुनाव आयोग ही तय करेगा। एक अच्छी बात राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के लिए है कि उन्हें इंटरनेट मीडिया के माध्यम से प्रचार में छूट दी गई है, लेकिन शर्त यह है कि दलों एवं प्रत्याशियों को प्रचार से पहले आयोग के प्रमाणन समिति से सत्यापन कराना होगा।