सम्पादकीय

संघीय व्यवस्था के लिए चुनौती

Subhi
8 April 2021 1:30 AM GMT
संघीय व्यवस्था के लिए चुनौती
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केंद्र सरकार देश की संघीय व्यवस्था के लिए लगातार चुनौती खड़ी करती जा रही है।

सुशान्त कुमार: केंद्र सरकार देश की संघीय व्यवस्था के लिए लगातार चुनौती खड़ी करती जा रही है। मुख्य विरोधी कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के साथ टकराव की वजह से संघीय व्यवस्था के सुचारू संचालन के रास्ते में लगातार बाधा आ रही है। लगातार होते चुनाव को इसका एक कारण माना जा सकता है। हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होता है और हर चुनाव भाजपा की ओर से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लड़ते हैं। उस राज्य में अगर कांग्रेस या किसी क्षेत्रीय पार्टी की सरकार है तो पार्टी के साथ साथ सरकार से भी टकराव बना दिया जाता है। हर सरकार पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह केंद्रीय योजनाओं का लाभ राज्य के आम लोगों को नहीं दे रही है। दूसरा आरोप यह लगाया जाता है कि केंद्र सरकार जो पैसा भेजती है उसमें क्षेत्रीय पार्टी के नेता गबन कर जाते हैं। जैसे इन दिनों पश्चिम बंगाल में आरोप लगाया जा रहा है कि चक्रवाती तूफान अम्फान के लिए दिया गया नौ सौ करोड़ रुपया ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी ने लूट लिया।

इस तरह भाजपा राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को एक रणनीति के तहत नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई में बदलती है। वह हर जगह यह नैरेटिव सेट करती है कि नरेंद्र मोदी तो इतना काम कर रहे हैं पर विरोधी पार्टी की राज्य सरकारें उसका लाभ लोगों को नहीं देती है। पहले जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और राहुल गांधी प्रचार में कहा करते थे कि केंद्र ने राज्यों को इतना पैसा भेजा, उतना पैसा भेजा तो तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी कहा करते थे कि राहुल गांधी अपने मामा के यहां पैसे लाकर भेजते हैं। लेकिन अब वहीं बात खुद वे और उनकी पार्टी के नेता हर जगह दोहराते हैं औऱ विपक्षी पार्टियों पर उस पैसे में भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं। दो पार्टियों के बीच की राजनीतिक या चुनावी लड़ाई को दो सरकारों के बीच की लड़ाई में या दो नेताओं के बीच की लड़ाई में बदल कर भाजपा और मौजूदा केंद्र सरकार संघीय व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डबल इंजन की सरकार का नैरेटिव बना कर भी संघीय व्यवस्था को खतरे में डाला है। आमतौर पर इसकी गंभीरता को नहीं समझा जाता है और इसे चुनाव जीतने के एक हथकंडे के तौर पर देखा जाता है पर यह संघीय व्यवस्था की बुनियाद पर चोट करने वाली बात है। सोचें, नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्ति कैसे यह बात कह सकता है कि राज्य का विकास तभी होगा, जब डबल इंजन की सरकार बनेगी यानी केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार बनेगी? अगर ऐसा है तो फिर उन्होंने गुजरात का विकास कैसे किया? जिस गुजरात मॉडल का प्रचार कर उत्तर भारत के राज्यों में वे चुनाव जीते वह मॉडल कैसे बना? उनके गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के तीन साल बाद केंद्र में कांग्रेस की सरकार बन गई थी और अगले 10 साल कांग्रेस की सरकार रही। फिर केंद्र में कांग्रेस की सरकार रहते वे गुजरात का विकास कैसे कर रहे थे? और अगर वे सिंगल इंजन की सरकार में राज्य का विकास कर सकते थे तो दूसरे मुख्यमंत्री क्यों नहीं कर सकते हैं? यह तो तभी संभव है, जब केंद्र का इंजन संभाल रहे प्रधानमंत्री उन राज्यों में विकास को रोक दें, जहां उनकी पार्टी के हाथ में इंजन नहीं है! क्या प्रधानमंत्री ऐसा करते हैं?

विपक्षी नेताओं को निकम्मा और भ्रष्ट साबित करने के साथ साथ डबल इंजन का नैरेटिव देश की संघीय व्यवस्था के लिए बड़ा खतरा बना है। यह अलग बात है कि जिन राज्यों में उनके हिसाब की डबल इंजन की सरकार है वहां के मुख्यमंत्री अक्सर अपनी 'काबिलियत' का प्रदर्शन करते रहते हैं। उनके मुकाबले कांग्रेस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के मुख्यमंत्रियों का मॉडल बेहतर काम करता दिखता है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसान सम्मान निधि के तहत किसानों को नकद पैसा देने की जो योजना शुरू की है वह तेलंगाना राष्ट्र समिति की सरकार के मुखिया के चंद्रशेखर राव की योजना रायतू बंधु पर आधारित है। तेलंगाना और ओड़िशा में यह मॉडल पहले अपनाया गया और उसके बाद मोदी ने अपनाया। उसी तरह हर जगह नल का पानी पहुंचाने के लिए जल शक्ति मंत्रालय बना कर मोदी ने जो पहल की है वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नल जल योजना के नाम से पहले ही शुरू कर चुके थे। दक्षिण भारत के राज्यों में लगातार प्रादेशिक पार्टियों का शासन रहा है और जबरदस्त विकास हुआ है। उन्होंने कभी डबल इंजन पर ध्यान नहीं दिया और कर्नाटक छोड़ कर किसी राज्य में भाजपा की सरकार नहीं बनी। कर्नाटक में भी भाजपा का शासन कुल सात साल का है। लेकिन दक्षिण के सभी राज्य उन राज्यों से बेहतर हैं, जहां भाजपा का शासन है या डबल इंजन की सरकार है।
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने संविधान में किए गए शक्तियों के बंटवारे वाले सिद्धांत को ताक पर रख कर राज्यों के अधिकार वाले विषय पर कानून बनाने शुरू कर दिए हैं, जिससे संघीय व्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुई है। कृषि कानूनों का मामला एक मिसाल है। कृषि का मुद्दा राज्य का विषय है पर केंद्र ने इस पर तीन कानून बना दिए और अपना अधिकार दिखाने के लिए यह बहाना बनाया गया कि ये कानून कृषि उत्पादों के कारोबार से जुड़े हैं, जिस पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र को है। लेकिन असल में यह राज्यों का विषय है। अब केंद्र सरकार ने भारतीय खाद्य निगम के जरिए यह नियम बनवाया है कि अनाज खरीद का पैसा सीधे किसानों के खाते में जाएगा। आढ़तियों की व्यवस्था खत्म करने के लिए ऐसा किया जा रहा है लेकिन इससे पंजाब और हरियाणा में दशकों से चल रही व्यवस्था प्रभावित होगी। तभी पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इसे राज्य के मामले में दखल बताया है। दूसरी मिसाल दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधिकार छीनने का है। लगातार दो चुनावों में आम आदमी पार्टी को हराने में नाकाम रहे प्रधानमंत्री ने चुनी हुई सरकार के सारे अधिकार छीन कर उप राज्यपाल को दे दिए और दिल्ली की कमान सीधे अपने हाथ में ले ली। यह एक बहुत खतनाक और गलत परंपरा की शुरुआत है। अगर भाजपा यह मानती है कि दिल्ली की सरकार उप राज्यपाल को केंद्र की सलाह से ही चलाना चाहिए तो उसे चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था और पूर्ण राज्य का दर्जा देने का वादा नहीं करना चाहिए था।
पश्चिम बंगाल में चल रहे चुनाव के बीच ममता बनर्जी ने सभी विपक्षी पार्टियों को चिट्ठी लिख कर केंद्र सरकार और भाजपा पर कई आरोप लगाए, जिनमें एक आरोप यह भी था कि केंद्र सरकार विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को पर्याप्त धन आवंटित नहीं करती है और उसके कामकाज में दखल देती है। एक-एक करके सभी विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों ने उनकी इस बात से सहमति जताई। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बिल्कुल ऐसी ही भावना प्रकट की। हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने संघवाद से आगे बढ़ कर सहकारी संघवाद की बात कही थी लेकिन केंद्र सरकार के कामकाज से सहकारी संघवाद की बात जुमला साबित हो रही है। यह हकीकत है कि विपक्षी पार्टियों वाली राज्य सरकारों को केंद्र से इससे पहले कभी इतनी शिकायत नहीं रही है।


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