सम्पादकीय

धरती को बचाने की चुनौती

Subhi
17 April 2022 4:06 AM GMT
धरती को बचाने की चुनौती
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पेरिस समझौते में दुनिया भर के देशों ने कार्बन उत्सर्जन पर इस तरह नियंत्रण स्थापित करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी कि धीरे-धीरे कार्बन उत्सर्जन शून्य हो जाए और पृथ्वी के बढ़ते तापमान को नियंत्रित किया जा सके।

अतुल कनक; पेरिस समझौते में दुनिया भर के देशों ने कार्बन उत्सर्जन पर इस तरह नियंत्रण स्थापित करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी कि धीरे-धीरे कार्बन उत्सर्जन शून्य हो जाए और पृथ्वी के बढ़ते तापमान को नियंत्रित किया जा सके। लेकिन विसंगति यह रही कि जो देश अपने संसाधनों के दम पर इस दिशा में अन्य देशों के लिए मिसाल हो सकते थे, उनमें से भी कई अपनी जिम्मेदारियों के प्रति उदासीन रहे।

पर्यावरण प्रसंगों पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने एक बार फिर इस बात पर चिंता जताई है कि प्रकृति की चेतावनियों के बावजूद जिम्मेदार मुल्क ग्रीनहाउस गैसों, विशेषकर कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन को काबू करने की दिशा में सार्थक कदम नहीं उठा रहे हैं। ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन से बिगड़ते पर्यावरण पर आई इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने यहां तक कह दिया कि 'यह स्थिति बेहद शर्मनाक है। हम पर्यावरण को बचाने की कोरी प्रतिज्ञाएं ही करते हैं, पर कोई ठोस कदम नहीं उठाते, जिसकी वजह से हम एक ऐसी दुनिया की बोर बढ़ते जा रहे हैं जो रहने के लायक ही नहीं होगी।' गुतारेस का यह बयान बताता है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन ने हालात कितने भयावह बना डाले हैं।

आखिर ग्रीनहाउस गैसें हैं क्या और उनका उत्सर्जन पर्यावरण को इतना प्रदूषित क्यों कर रहा है? दरअसल वायुमंडल में कुछ गैसें ऐसी होती हैं जो पृथ्वी की गरमी को बाहर जाने से रोकती हैं। इससे पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी होती है। इस स्थिति को ग्रीनहाउस प्रभाव कहा जाता है। इस शब्द का पहली बार प्रयोग पाश्चात्य विद्वान जे फोरियर ने किया था। एक तरफ ओजोन परत के क्षरण के कारण सूर्य से आने वाला ताप अपेक्षाकृत अधिक निर्बाध तरीके से पृथ्वी तक पहुंच रहा है और दूसरी तरफ ग्रीनहाउस गैसें उस ताप को पृथ्वी के वातावरण से बाहर निकलने से रोक कर समूचे परिवेश का तापमान बढ़ाती हैं। पिछले कुछ सालों में इस प्रभाव में हुई अत्यधिक बढ़ोतरी ने दुनिया के संवेदनशील लोगों को स्पंदित किया है और इस बात की आवश्यकता बहुत शिद्दत के साथ महससू की जाने लगी है कि वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के प्रयास किए जाएं।

यहां उल्लेखनीय है कि कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड, फ्लोरीन और क्लोरो-फ्लोरो कार्बन जैसी गैसों के उत्सर्जन में हमारी बदली हुई जीवनशैली ने बहुत योगदान किया है। वाहनों के धुएं से लेकर फ्रिज और वातानुकूलन संयंत्रों तक के उपयोग के कारण परिवेश में मीथेन और कार्बन डाइआक्साइड जैसी गैसों का उत्सर्जन सामान्य से कई गुना अधिक हो गया है। दूसरी तरफ उन जंगलों का तेजी से सफाया हुआ है, जिनमें मौजूद पेड़ कार्बन डाइआक्साइड का बड़ी मात्रा में अवशोषण करके प्राणी जगत को आक्सीजन उपलब्ध कराया करते थे। यही कारण है कि आइपीसीसी की ताजा रिपोर्ट में जीवनशैली में बदलाव की आवश्यकता पर खासा जोर है।

रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि यदि मानव समाज अभी भी नहीं संभला, तो विश्व में अनेक बीमारियां फैलेंगी, प्राकृतिक आपदाएं और विकट होंगी और समुद्रों के जल स्तर में भी अप्रत्याशित वृद्धि होगी। गौरतलब है कि भारत में ही पिछले कुछ सालों में नदियों में बाढ़, बादल फटने और अचानक ग्लेशियर पिघलने जैसी घटनाएं तबाही मचा चुकी हैं। पिछले सालों में दुनिया भर समुद्री तूफानों की आवृत्ति में हुए इजाफे को भी ग्रीनहाउस प्रभाव से ही जोड़ कर देखा जा रहा है।

भारत जैसे देशों के लिए तो ग्रीनहाउस प्रभाव इसलिए भी अधिक चिंता का विषय है कि इसके कारण न केवल समुद्र के किनारे बसे शहरों की जनसंख्या प्रभावित होगी, बल्कि खेती पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। आइपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार तापमान बढ़ने से भारत के करीब साढ़े तीन करोड़ लोगों को हर साल तटीय बाढ़ का सामना करना पड़ेगा।

ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण सामान्य तापमान में होने वाली वृद्धि को 'वेट बल्ब टेंपरेचर' नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके कारण भारत के महानगर ही नहीं, भुवनेश्वर, लखनऊ, इंदौर, अमदाबाद जैसे शहर भी प्रभावित होंगे। तापमान बढ़ने से दुनिया भर में फसलों को नुकसान होगा, लेकिन भारत जैसी कृषि प्रधान व्यवस्था को नुकसान सबसे ज्यादा होने की आशंका है। अनुमान है कि सन 2050 तक ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण चावल, गेहूं, दाल और मोटे अनाज की पैदावार नौ प्रतिशत तक कम हो जाएगी।

इसके अलावा खेती का घटता हुआ रकबा, कृषि भूमि पर होने वाले निर्माण और जनसंख्या में वृद्धि इस कमी को और गंभीर बनाएंगे। विसंगति यह है कि जिस भारत में प्रारंभ से ही प्रकृति के स्तवन की परंपरा रही है, वह भारत भी ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित करने में दुनिया के दूसरे देशों से पीछे नहीं है। सन 2020 में चीन ने एक लाख पंद्रह हजार लाख मीटरिक टन से अधिक कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जित की थी। यह दुनिया में सर्वाधिक था। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे स्थान पर था।

इसके बाद दुनिया में कार्बन डाइआक्साइड जैसी गैसों के उत्सर्जन में कुछ कमी आई, लेकिन उसका कारण कोई नीतिगत बदलाव नहीं था, बल्कि कोरोना के कारण दुनिया में लंबे समय तक व्यावसायिक गतिविधियों का ठप होना था। चीन, अमेरिका और भारत के अलावा यूरोपीय संघ के सदस्य देश, रूस, जापान, ईरान और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी पीढ़ियों के जीवन को चुनौती देने के लिए ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करने वाली गैसों को अनियंत्रित तरीके से उत्सर्जित कर रहे हैं। हालांकि वैकल्पिक ऊर्जा की बातें सब कर रहे हैं, लेकिन प्रौद्योगिकी संपन्न देश भी अब तक पारंपरिक ईंधन पर अपनी निर्भरता कम नहीं कर पा रहे हैं। अकेला अमेरिका पेट्रोल की वैश्विक खपत का बीस प्रतिशत इस्तेमाल करता है। चीन में आज भी सत्तावन प्रतिशत बिजली उत्पादन कोयले से होता है।

जीवाश्म ईंधन की खपत वातावरण को जहरीला बनाने में एक महत्त्वपूर्ण घटक है। लेकिन इससे भी अधिक जहरीला वह स्वार्थ है, जो लोगों को दुनिया के बारे में सोचने नहीं देता। हाल में जब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हरियाली बढ़ाने की एक महत्त्वाकांक्षी योजना का प्रस्ताव रखा था, तो उन्हीं की पार्टी के दो सीनेटरों ने इस योजना का पुरजोर विरोध किया। कारण यह बताया जा रहा है कि यह योजना जिस जीवाश्म र्इंधन उद्योग के हितों पर कुछ प्रतिकूल प्रभाव डालती, इन सीनेटरों के उस उद्योगों से जुड़े लोगों से गहरे संबंध हैं।

पर्यावरण प्रेमियों का मानना है कि सन 2015 का पेरिस समझौता ग्रीनहाउस प्रभाव से पृथ्वी को बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, बशर्ते उसके प्रावधानों का ईमानदारी से पालन करने के लिए सभी देश संकल्पित हों। पेरिस समझौते में दुनिया भर के देशों ने कार्बन उत्सर्जन पर इस तरह नियंत्रण स्थापित करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी कि धीरे-धीरे कार्बन उत्सर्जन शून्य हो जाए और पृथ्वी के बढ़ते तापमान को नियंत्रित किया जा सके। लेकिन विसंगति यह रही कि जो देश अपने संसाधनों के दम पर इस दिशा में अन्य देशों के लिए एक मिसाल हो सकते थे, उनमें से भी कई अपनी जिम्मेदारियों के प्रति उदासीन रहे। बेशक गरीब देशों के लिए परंपरागत ऊर्जा संसाधनों को त्याग कर नवीनीकृत ऊर्जा संसाधनों की स्थापना करना इसलिए एक दुरूह कार्य हो सकता है क्योंकि उनकी अपनी आर्थिक सीमा होती है।

इसीलिए करीब एक दशक पहले अमीर देशों ने यह वादा किया था कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निबटने के लिए वे हर साल सौ अरब डालर देंगे। लेकिन विकसित देशों ने न तो इस अवधि में अपने उस वादे को निभाया और न इस विषय पर कुछ समय पहले ग्लासगो में हुए शिखर सम्मेलन में उस प्रतिबद्धता को दोहराना ही आवश्यक समझा। और तो और, बहुत सारे देशों ने अब तक यह घोषित नहीं किया है कि वे शून्य कार्बन उत्सर्जन की स्थिति को कब तक हासिल करने की कोशिश करेंगे।

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