सम्पादकीय

मानसिक स्वास्थ्य सेवा की चुनौती : मानिसक स्वास्थ्य तक पहुंच बनाने के अधिकार को मान्यता की दरकार

Rounak Dey
11 Oct 2022 2:15 AM GMT
मानसिक स्वास्थ्य सेवा की चुनौती : मानिसक स्वास्थ्य तक पहुंच बनाने के अधिकार को मान्यता की दरकार
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मानसिक बीमारियों के उपचार के बारे में जागरूकता फैलाने की कोशिश करनी चाहिए।

सदियों से मानसिक रुग्णता से ग्रस्त लोगों को पागल बताकर कलंकित किया गया है और मानसिक रोगों को अभिशाप माना गया है। आज वैज्ञानिक समझ और चिकित्सा इतनी आगे बढ़ चुकी है कि अब अधिकांश मानसिक बीमारियों का सफलतापूर्वक इलाज हो सकता है। चीन के बाद विश्व स्तर पर मानसिक रूप से बीमार लोगों की संख्या भारत में सबसे ज्यादा है।

भारत में युवाओं में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। फिर भी 90 फीसदी से अधिक मनोरोगियों को इलाज की सुविधा नहीं मिल पाती। सामाजिक आख्यान को बदलने में कानून के विकास ने निरंतर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय पागलपन अधिनियम, 1912 के तहत मानसिक रुग्णता से ग्रस्त लोगों की तुलना पागलों से की जाती थी और उन्हें समाज से दूर रखा जाता था।
मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम, 2017 मानसिक रोगियों की गरिमा और स्वायत्तता को प्राथमिकता देते हुए उनके साथ सामान्य लोगों की तरह व्यवहार करता है और उन्हें समाज में एकीकृत करने पर जोर देता है। इस अधिनियम ने 'मानिसक स्वास्थ्य तक पहुंच बनाने के अधिकार' को मान्यता दी है, जिसके तहत हर व्यक्ति को सरकार द्वारा चलाई जा रही या वित्तपोषित मानसिक स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच बनाने का अधिकार है।
इसमें लिंग, धर्म, जाति, वर्ग या राजनीतिक मान्यता के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा और कम खर्च में गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध होगी। सरकार यह भी सुनिश्चित करेगी कि अगर मानसिक रोगी के जिले में कोई सरकारी स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध नहीं है, तो उसका उपचार उसी जिले में स्थित निजी स्वास्थ्य सुविधा में होगा और इसके उपचार का खर्च सरकार वहन करेगी।
इस अधिनियम का एक अन्य प्रमुख योगदान आत्महत्या के प्रयास को अपराध मुक्त करना है। आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्महत्या की कोशिश करने वाले को एक साल तक जेल और जुर्माने की सजा होती है। इस अधिनियम में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति आत्महत्या का प्रयास करेगा, तो उसे गंभीर तनाव में माना जाएगा, और इसके लिए उसे दंडित नहीं किया जाएगा।
इस अधिनियम ने रोगियों के अधिकारों की कई नई अवधारणाएं पेश की हैं, जैसे अग्रिम निर्देश (जो लोगों को भविष्य में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और किसी विशेष उपचार को चुनने/अस्वीकार करने का अधिकार देता है), मनोनीत प्रतिनिधियों की नियुक्ति (जब मानसिक बीमारी के कारण रोगी स्वास्थ्य संबंधी निर्णय लेने में असमर्थ है, तो उसके द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि उसके उपचार के बारे में निर्णय लेंगे)।
हालांकि इस कानून को पारित हुए आधे दशक से अधिक का समय हो गया है, पर इसका कार्यान्वयन संतोषजनक नहीं हो रहा है। इसमें सबसे बड़ी बाधा सरकार द्वारा कम वित्तीय आवंटन है। वित्त वर्ष 2022-23 में, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए कुल 86,200.45 करोड़ रुपये का बजट आवंटन हुआ है, यानी केंद्र सरकार के वित्तीय परिव्यय का केवल दो फीसदी।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य के लिए बजट अनुमान स्वास्थ्य बजट का 0.7 प्रतिशत है, यानी कुल 1035.39 करोड़ रुपये। वर्ष 2019 के एक अध्ययन के अनुसार, इस कानून को लागू करने के लिए सरकार की वार्षिक अनुमानित लागत 94,073 करोड़ रुपये है। दूसरी चुनौती भारत में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की भारी कमी है।
भारत में प्रति दस लाख लोगों पर लगभग 3.5 मनोचिकित्सक हैं, जबकि कॉमनवेल्थ मानदंड प्रति दस लाख लोगों पर 56 मनोचिकित्सकों का है। इसके अलावा, सीमित प्रशिक्षण सुविधाएं भविष्य की निराशाजनक तस्वीर पेश करती हैं। सरकार को पूरे देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच का विस्तार करने के लिए निजी चिकित्सकों को प्रोत्साहित करने और पीपीपी परियोजनाओं द्वारा साथ में मिलकर काम करने की आवश्यकता है। सरकार के अलावा समाज को भी मनोरोग से जुड़े कलंक को कम करने और मानसिक बीमारियों के उपचार के बारे में जागरूकता फैलाने की कोशिश करनी चाहिए।

सोर्स: अमर उजाला

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