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सेंट्रल विस्टा परियोजना
ब्रजबिहारी। उम्मीद की जानी चाहिए कि सेंट्रल विस्टा परियोजना को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद अब इसके निर्माण कार्य को रोकने के लिए कानूनी दांवपेच का सहारा ले रहे लोगों को सद्बुद्धि आ जाएगी और वे राष्ट्रीय महत्व की इस महत्वाकांक्षी परियोजना का विरोध करना छोड़ देंगे। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले मंगलवार को दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने वाली याचिका खारिज कर दी। दिल्ली हाईकोर्ट ने इस परियोजना के निर्माण पर रोक लगाने वाली याचिका खारिज करते हुए याची पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। इसके बावजूद वे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए।
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस परियोजना के विरोधी किस हद तक जा सकते हैं। इस परियोजना में कानूनी अड़ंगे लगाने वालों की दलील थी कि इसके निर्माण कार्य जारी रहने से कोविड दिशानिर्देशों का उल्लंघन हो रहा है। अच्छा हुआ कि अदालतों ने इस तर्क को मानने से इन्कार कर दिया। इस परियोजना की राह में रोड़े अटकाने वाले विरोधी कोविड महामारी के दौरान इस पर हो रहे खर्च और उसकी उपयोगिता पर भी सवाल उठा रहे हैं। ऐसा बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार महामारी से प्रभावित लोगों की मदद करने के बजाय फिजूलखर्ची पर उतारू है
कहना न होगा कि विरोध की इन दलीलों में कोई दम नहीं है। देश को एक नए संसद भवन और मंत्रियों एवं प्रशासनिक अमले को काम करने और रहने के लिए नई इमारतों की जरूरत है। लगभग एक सदी पहले सेंट्रल विस्टा की ये इमारतें उस दौर में बनी थीं जब एयर कंडीशनर और टेलीफोन को भी लक्जरी समझा जाता था। डिजिटल दुनिया के बारे में तो तब किसी ने सुना भी नहीं था। जाहिर है, आधुनिक सुविधाओं और टेक्नोलाजी के लिहाज से ये इमारतें अनुपयोगी साबित हो रही हैं। दूसरी बात ये है कि सेंट्रल विस्टा में जगह नहीं होने के कारण कई मंत्रलय दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से काम कर रहे हैं और सालाना लगभग एक हजार करोड़ रुपये का किराया चुका रहे हैं
सेंट्रल विस्टा परियोजना की उपयोगिता पर तो कोई सवाल ही नहीं है। भविष्य की जरूरतों के मद्देनजर देश को नया संसद भवन चाहिए। वर्तमान में लोकसभा के 543 और राज्यसभा के 245 सदस्य हैं, लेकिन 2021 की जनगणना के बाद इनकी संख्या बढ़ेगी। वर्ष 2026 में परिसीमन के बाद बढ़े हुए सांसदों के बोझ को उठाने में वर्तमान संसद भवन सक्षम नहीं है। मौजूदा संसद भवन को बने 100 साल पूरे हो चुके हैं। अब नई लोकसभा में 888 सीटें, जबकि राज्यसभा में 384 सीटें होंगी। विजिटर गैलरी में 336 लोग बैठ पाएंगे। इस परियोजना पर होने वाले खर्च पर भी त्योरियां चढ़ाई जा रही हैं, लेकिन इसकी भी कोई बुनियाद नहीं है। नए संसद भवन एवं सेंट्रल विस्टा की अन्य नई इमारतों के निर्माण पर वर्ष 2026 तक कुल 20 हजार करोड़ रुपये खर्च होने हैं। विरोधियों का कहना है कि इस राशि को कोविड प्रभावितों की मदद पर खर्च करना चाहिए था। अगर पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी ऐसे तर्को से प्रभावित हो गए होते तो देश में परमाणु बिजली परियोजनाएं और विशाल बांध नहीं बन पाते और हम आज चांद पर मानव भेजने की तैयारी नहीं कर रहे होते। यह सही है कि सरकार का ध्यान गरीबी दूर करने पर होना चाहिए, लेकिन भविष्य के लिए निवेश करना भी उसकी ही जिम्मेदारी है।
प्रासंगिकता और लागत के अलावा सेंट्रल विस्टा परियोजना का विरोध इस आधार पर भी किया जा रहा है कि इससे लुटियन दिल्ली की सुंदरता पर दाग लग जाएगा। कई ऐतिहासिक इमारतें ध्वस्त कर दी जाएंगी। इन विरोधियों में ऐसे लोग ज्यादा हैं जो लुटियन दिल्ली में पले-बढ़े और सक्रिय रहे। उन्हें अपना बचपन और जवानी याद आ रही है। वे याद दिला रहे हैं कि इंडिया गेट के लॉन में उनकी सुबहें और शामें कैसी हुआ करती थीं। ये लोग केंद्र सरकार और उसके नेतृत्व के सौंदर्यशास्त्र पर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन ये भूल रह हैं कि अब नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ने का समय चल रहा है। इसे वे लोग गढ़ रहे हैं जो हर पश्चिमी चीज पर लट्टू नहीं रहते हैं और अपनी जमीन से जुड़े हुए हैं। इसीलिए, अंग्रेजीदां लोगों को फूटी आंख नहीं सुहा रहे हैं।
हास्यास्पद होने की सीमा तक अतार्किक और अव्यावहारिक विरोधियों के रहते केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। मोदी को इस तरह की लड़ाइयों से नहीं हराया जा सकता है। वे एक ऐसे देश का नेतृत्व कर रहे हैं जो खुद पर गर्व करता है। उसे मालूम है कि देसी टीका विकसित करने का क्या अर्थ होता है। वह यह भी जानता है कि अमेरिका में कोरोना का टीका लगवाने के लिए दो-दो हफ्तों तक भटकना पड़ रहा है, जबकि अपने देश में इसकी पूरी व्यवस्था अभूतपूर्व तेजी और सटीकता के साथ चल रही है और पूरी दुनिया में इसकी तारीफ हो रही है। यही नहीं, यहां टीका लगवाते ही तुरंत उसका प्रमाणपत्र मोबाइल पर आ जाता है और अमेरिका में कागज के कार्ड पर नर्स के हाथ से लिखा हुआ सर्टिफिकेट दिया जा रहा है।
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