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संसद की लोकलेखा समिति का दो दिवसीय शताब्दी समारोह संसद भवन के केन्द्रीय सभागार में प्रारम्भ हो चुका है जो आज रविवार को समाप्त हो जायेगा। वास्तव में यह समारोह भारत के लोकतन्त्र की उस ताकत को दिखाता है जिसमें आम जनता ही इस व्यवस्था की मालिक होती है और उसके एक वोट की ताकत पर चुनी हुई किसी भी राजनीतिक दल की सरकार आम जनता के प्रति जवाबदेह होती है। यह जवाबदेही संसद के माध्यम से ही तय होती है क्योंकि इसमें जनता द्वारा चुने गये राजनीतिक दल के बहुमत के सदस्यों की सरकार होती है और अल्पमत में चुने गये सदस्य विपक्ष में बैठते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सदस्यों को आम जनता ही चुन कर संसद में भेजती है जिससे समूची संसद भी जनता के प्रति जवाबदेह होती है। लोकतन्त्र के इस सिद्धान्त के दृष्टिगत लोकलेखा समिति का महत्व यह बनता है कि सरकार द्वारा उगाही गई सम्पूर्ण राजस्व धनराशि के उपयोग की यह संरक्षक बन जाती है। इसका प्रमुख कार्य सरकार द्वारा किये गये खर्चों का लेखा-जोखा करना होता है और देखना होता है कि सरकार ने विभिन्न योजनागत व गैर योजनागत खर्चों के लिए जिस आवश्यक धनराशि की मंजूरी संसद से ली है उसका उपयोग न्यायपूर्ण ढंग से कार्यपालिका के माध्यम से हुआ है या नहीं अथवा उसमें कहीं बरबादी या भ्रष्टाचार तो नहीं हुआ है। यह स्वयं में विरोधाभासी नहीं है कि संसद स्वयं ही सरकार को उसकी जरूरत के लिहाज से धनराशि का आवंटन करती है और स्वयं ही जांच भी करती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बहुमत की सरकार जो भी धन संसद से मंजूर कराती है उसका खर्च शासन व्यवस्था चलाने वाले सरकारी अमले अर्थात कार्य पालिका के माध्यम से किया जाता है और उसमें गड़बड़ी की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसे देखते हुए ही हमारे दूरदर्शी पुरखों ने लेखा महा नियन्त्रक कार्यालय की स्थापना की थी और उसे संवैधानिक दर्जा देते हुए यह प्रावधान किया था कि इसकी रिपोर्ट को संज्ञान में लेते हुए लोकलेखा समिति दूध का दूध और पानी का पानी करे और जहां भी गड़बड़ी या धांधली हुई है उसे भविष्य में दुरुस्त करने के लिए सरकार को आवश्यक सिफारिशें करे। आजादी के बाद संविधान लागू होने पर शुरू में संसद में विप की कोई खास उपस्थिति नहीं होती थी अतः सत्ता पक्ष स्वयं ही यह कार्य किया करता था परन्तु 1967 में देश के चरित्र में आधारभूत परिवर्तन आया और संसद में सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस को बहुत कम बहुमत प्राप्त हुआ जिसे देखते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने लोकलेखा समिति के अध्यक्ष पद पर विपक्ष के नेता या लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता को बैठाना शुरू किया। 1967 में उस समय पहली बार इस समिति के अध्यक्ष पद पर तत्कालीन स्वतन्त्र पार्टी के नेता स्व. मीनू मसानी को बैठाया गया। इसे संयोग ही कहा जायेगा कि उस वर्ष के चुनावों में स्वतन्त्र पार्टी के भी लोकसभा में 44 सदस्य थे और यह सदन की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी ( 2014 के चुनावों में कांग्रेस को भी इतने स्थान मिले थे) अतः लोकसभा में इसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को इस समिति का अध्यक्ष मोदी सरकार ने बनाया था। मौजूदा लोकसभा में भी कांग्रेस सबसे बड़ी विप पार्टी है अतः इसके नेता अधीररंजन चौधरी को यह पद दिया गया। इससे पूर्व मनमोहन सरकार के दौरान भाजपा नेता डा. मुरली मनोहर जोशी भी इस समिति के अध्यक्ष रहे थे। उनके समय में 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले की बहुत गूंज हुई थी और तब स्वयं प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने घोषणा कर दी थी कि अगर समिति उन्हें तलब करेगी तो वह उसके समक्ष पेश होंगे। इस मायने में इस समिति के अधिकार बहुत ज्यादा हैं। इसकी वजह यह है कि यह देश के सर्वोच्च सदन संसद के भीतर से ही चुनी जाती है और भारत के लोकतन्त्र में संसद की सत्ता सार्वभौम है। इसका अध्यक्ष विपक्ष का नेता बनाने की परंपरा इसीलिए शुरू की गई जिससे सार्वभौम संसद के गठन के लिए जिम्मेदार भारत के आम नागरिक की गाढ़ी कमाई से जमा की गई सरकारी धनराशि के सही उपयोग का अधिकार भी आम जनता के ही हाथ में ही रहे। चूंकि संसद के भीतर विपक्ष सरकार के हर कदम औऱ नीति की आलोचना अपने वैकल्पिक मत के अनुसार करता है अतः राजस्व राशि के सदुपयोग की जिम्मेदारी भी कालान्तर में उसे सौप दी गई। मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि समिति में किसी भी मुद्दे पर दलगत आधार पर विचार-विमर्श होता है।संपादकीय :नए वेरिएंट से बचना है तो चलो ''पुराने मंत्र'' परभारत का परागदिल्ली सरकार का सस्ता पेट्रोलबूस्टर डोज की जरूरत?370 अब कल की बात हुईकोरोना की मार से निकलती अर्थव्यवस्था इस समिति में 15 सांसद लोकसभा से व सात राज्यसभा से लिये जाते हैं जो विभिन्न प्रमुख राजनीतिक दलों के होते हैं। समिति में जो भी विचार होता है वह बन्द कमरे के भीतर होता है और इसके बारे में कोई भी सदस्य मीडिया को खुलासा नहीं कर सकता। समिति की बैठकों में सदस्यों के बीच किसी मुद्दे पर मतभेद भी हो सकते हैं परन्तु उसकी अन्तिम रिपोर्ट सर्वसम्मत ही होती है क्योंकि इसकी बैठक में किसी सदस्य की राजनीतिक पहचान के मायने गौण हो जाते हैं और वह केवल भारत के लोगों का एक चुना हुआ प्रतिनिधि होता है। हालांकि इस मोर्चे पर पिछले बीस सालों में बहुत सी खामियां भी उबर कर सामने आयी हैं परन्तु कुल मिला कर इसका चरित्र अभी तक राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रख कर ही हिसाब-किताब की समीक्षा करना रहा है और सरकार को उसकी गलतियों का आभास कराना रहा है। यही वजह रही है कि सत्ता में बैठी लगभग हर पार्टी की सरकार ने इसकी अधिकतम सिफारिशों को मानने में ही भलाई समझी है।