सम्पादकीय

मौत का उत्सव

Rani Sahu
19 July 2023 6:57 PM GMT
मौत का उत्सव
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इस देश के लोग उत्सवधर्मी हो गए हैं। सही है हमारी लोक संस्कृति का रुझान हमेशा पर्वों, त्योहारों और उत्सवों की ओर रहा है। दीवाली में दीये जला कर हर घर में रौशनी की बारात सजती है, होली पर हास्य और अट्टहास की दूधगंगा के साथ रंग, अबीर और गुलाल की फाग उड़ती है। और फिर बल्ले-बल्ले बैसाखी। जाट के भंगड़ा डालते कदम कहने लगे, ‘फसलां दी मुक गई राखी, वे जट्टा आई बैसाखी।’ लेकिन न जाने क्यों हुआ, पिछले बहुत से दिनों से उत्सवों को चेहरे धुंआखे गये। नंग-मनंग होकर एक दूसरे के प्रति स्नेह और सौहार्द की गंगा बहा देने के स्थान पर नकाबपोश अंधेरे में गुम हो जाना चाहते हैं। बहुत सी कतारें रहती हैं यहां जनाब। राजधानी में आंदोलन जीवी दनदनाते हैं। जो कल तक अपने कोने के फुटपाथ का किराया भी धाकड़ों को चुका नहीं पाते थे, आज अपने आंदोलनजीवी होने के कारण ही इन धाकड़ों को अपने पीछे लगा जिंदाबाद का जयघोष करवाते हैं और फुटपाथ की जगह अपने प्रासाद की बुर्जी से क्रांति घोष का स्वर निकाल हमें उपकृत करते हैं। आन्दोलन करके जो अब कुर्सी तक पहुंच गया, वह अब कुर्सीजीवी हो जाएगा। रूसी राष्ट्रपति पुतिन की तरह दो-तीन कुर्सी सत्र अपने नाम अग्रिम पारित करवा लेना चाहेगा। अपना गुजरता वक्त अंतिम पहर तक पहुंचता देखेगा, तो अपनी वंशावली के लिए देश का भविष्य सुरक्षित करने का पैगाम दे देगा।
अजी, शासन सत्र आरक्षित करने की क्या बात है, यहां तो आने वाली पीढिय़ों के लिए भी बर्थ आरक्षित होने लगी है। आजादी के इस अमृत महोत्सव आते-आते एक जमात पैदा हो गई। पीढ़ी दर पीढ़ी कुर्सियों को सज्जित करते हैं। इन्हें कुर्सीजीवी कह लो या कुर्सी धर्मी, लेकिन बन्धु यहां तो क्रांति भी एक उत्सव धर्मी हो गई, जोशीले नारों के पंखों पर तैरता हुआ क्रांति उत्सव, जो जब थमता है तो हम पाते हैं कि हम तो वहां ही खड़े रह गए, जहां से चले थे। अच्छे दिन ला देने का वायदा हमें उस कालपर्वत पर ले आया, जहां आम लोगों के लिए भुखमरी, बेकारी और महंगाई एक रवायत है और विश्व के खुशहाली सूचकांक में और भी नीचे हो जाने की गिरावट दर्ज हो जाना एक विकट और जाना-पहचाना सत्य, जो ऐसा कम्बल है, जिसे हम छोड़ते हैं, लेकिन वह ही हमें अपने बाहुपाश से निकलने नहीं देता। आओ, अपनी भूख से निजात पाने के लिए जिंदगी के खैराती हो जाने का उत्सव मनाएं, क्योंकि यहां कार्य संस्कृति नहीं भीख संस्कृति चलती है।
देश को रोजगार पाना है तो मनरेगा के जाली कार्डों का अपने घर के दरवाजे तक पहुंचने का सहारा लो, भूख मिटानी है तो सस्ते राशन की दुकानों के बंद कपाटों के ताले खुलने की इंतजार करो। यह तो मौत का उत्सव है प्यारे, जिसे मनाने की दुंदुभि चौकस सायरन बजाने लगे, कि लो फिर सडक़ों पर दफा एक सौ चतालीस लग गयी। कफ्र्यू की घोषणा ने सडक़ों पर उतरती भीड़ को घर जाने के लिए कह दिया। सीख लो वापस लौटे इस मृत्यु उत्सव के नये आदाब। देखो बाजू में एक नहीं दो खुराक लगवाओ टीके की तो भी बार-बार हाथ धोते चलो, चेहरे को नकाब से ढंक लो, और एक दूसरे से छह फीट का अन्तर रख कर जीना सीख लो। ऐसा नहीं किया था न, तभी तो यह मौत के हरकारे वायरस का नया रूप धारण कर तुम्हारी गलियों और बाजारों में लौट आए। अब ऐसी गलती न हो बन्धु। समूहगान के दिन बीत गए, अब तो एकल गायन से ही इनका स्वागत होगा। जीने का नया अंदाज सीख लो। अपनी आत्मा तो इस मुखौटाधारी समाज ने पहले ही आवरण से ढक रखी थी, अब अपने चेहरे भी नकाब से ढक लो, क्योंकि यह मृत्यु उत्सव है। धूम मचाने का उत्सव नहीं, सहम कर एक-दूसरे से अलग रहने का उत्सव।
सुरेश सेठ

By: divyahimachal

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