सम्पादकीय

जातियां जीत रही हैं, लेकिन क्या उत्तरप्रदेश हार जाएगा यूपी में, राजनीतिक दलों की बुनियाद ही जातिवाद के फॉर्मूले पर रखी गई है

Gulabi
19 Jan 2022 8:13 AM GMT
जातियां जीत रही हैं, लेकिन क्या उत्तरप्रदेश हार जाएगा यूपी में, राजनीतिक दलों की बुनियाद ही जातिवाद के फॉर्मूले पर रखी गई है
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उत्तर प्रदेश का चुनाव जातिवाद की गिरफ्त में फंस गया है
ओम गौड़ का कॉलम:
उत्तर प्रदेश का चुनाव जातिवाद की गिरफ्त में फंस गया है। राजनीतिक दल के नेताओं के अलावा आम मतदाता भी इस चुनाव को जातिवाद के चश्मे से ही देख रहा है। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं होगा, लेकिन इस बार इसका प्रभाव कुछ ज्यादा ही नजर आ रहा है। पहले चरण के मतदान के जो उम्मीदवार अब तक घोषित हुए हैं उनमें भी जातिवाद का ही गुणा-भाग दिख रहा है। मजेदार बात यह है कि दल-बदल भी जातिवाद के जरिए हो रहा है।
उत्तरप्रदेश में जातिवाद ही प्रदेश के पिछड़ने की असली वजह है। देश का सबसे बड़ा राज्य छोटी-बड़ी जातियों के मकड़जाल में है, मकड़जाल भी ऐसा कि कई पार्टियां विरोधी दलों के उम्मीदवार देखकर प्रत्याशी बदलने को विवश हो जाती हैं। हर जातिवादी नेता अपनी जाति के वोटों की संख्या 3 से 4 फीसदी ज्यादा बताकर अपनी पैरवी करता है, वजह यह है कि वह कैसे अपने हिस्से में ज्यादा सीटों और ज्यादा टिकट का जुगाड़ बैठा सके। देश में जातियों के पुख्ता आंकड़े नहीं हैं, इसलिए सभी राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से अपनी जातियों-वोटर्स का प्रतिशत बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं।
प्रदेश के हर फैसले में जातिवाद पानी में परछाई की तरह साफ दिखाई पड़ता है। प्रदेश में अधिकारियों की नियुक्तियों से लेकर विकास के फैसले भी जाति पूछकर हो रहे हैं। प्रदेश में चुनाव जीतने और हराने में जातिवाद एक बार कारगर तो हो सकता है लेकिन जब तक यहां फैसलों में प्रदेशवाद नहीं दिखेगा तब तक प्रदेश गुडगर्वनेंस स्टेट की दौड़ में शामिल ही नहीं हो सकता। प्रदेश में राजनीतिक दलों की बुनियाद ही जातिवाद के फॉर्मूले पर रखी गई है। प्रदेश में चुनाव का आगाज हो चुका है, किसी नेता की जुबान पर न देश है न प्रदेश सिर्फ क्षेत्र और उस क्षेत्र की बहुसंख्यक जाति के वोटर ही निशाने पर हैं।
जहां जाति पूछकर टिकट देने की परंपरा एक सोच बन जाए वहां विकास भी इसी सोच के आस-पास ही तो मड़राएगा? सच जानिए तो उत्तरप्रदेश चुनाव में विकास, बेरोजगारी, महंगाई जैसे जरूरी बातों को कोई मुद्दा ही नहीं बनने दिया जा रहा है। इस बार राज्य में 19.89 लाख नए वोटर शामिल हुए हैं। ये भी अपनी जातियों के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जरूर किसान आंदोलन एक मुद्दा है लेकिन कब यह मुद्दा जातिवाद की शक्ल अख्तियार करले, कुछ कहा नहीं जा सकता।
सात चरणों में होने वाले इस चुनाव में सात रंग हैं- केसरिया (भाजपा), लाल (सपा), पीला (सुभासपा), हरा (रालोद), सफेद (कांग्रेस), मैरून (निषाद) और नीला (बसपा)। इन्हीं रंगों से राजनीतिक दलों की पहचान है। इन दलों के अलग घोषणा पत्र हैं, अलग वायदे हैं और अपनी-अपनी नीतियां हैं। उत्तरप्रदेश का चुनाव इस पल बयानों-वक्तव्यों और आरोप-प्रत्यारोपों में उलझ गया है। कोरोना के कारण चूंकि वर्चुअल बैठकें हो रही हैं। 22 जनवरी के बाद फैसला होना है कि मैदानी रैलियां होंगी या नहीं।
जिस दिन रैलियों की छूट मिलेगी उस दिन से चुनावी उफान चौगुना हो जाएगा। सभी दल ताल ठोंक रहे हैं वोटर इंतजार कर रहे हैं कि यहां जातिवाद जीतता है कि उत्तर प्रदेश की जनता। उप्र विधानसभा का यह चुनाव यादव, मुस्लिम, दलित- निषाद, जाट, मोर्या, ब्राह्मण और अति पिछड़ी जातियों में बंटा हुआ लगता है। देखकर ऐसा लगता है कि जैसे विधायक नहीं, यहां जाति प्रमुख चुने जा रहे हों। प्रदेश को देखते हुए राजनीतिक दलों को प्रदेश फर्स्ट के साथ खड़ा होना चाहिए। सरकार किसी की भी बन जाए वह जातिवाद के बोझ तले दबी रहेगी। जब तक ऐसा होगा चुनाव जातियां ही लड़ेंगी पार्टियां नहीं।
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